1969


08.05.1969

"...उनके नयनों से ऐसा महसूस होगा जैसे कोई निशाने तरफ किसका खास अटेन्शन होता है तो उनके नयन कैसे होते हैं?

तीर लगाने वाले वा निशाना लगाने वाले जो मिलेट्री के होते हैं, वो पूरा निशाना रखते हैं।

उनके नयन, उनकी वृत्ति उस समय एक ही तरफ होगी।

तो जो ऐसा निश्चय बुद्धि पक्का होगा उनके चेहरे से ऐसे महसूस होगा जैसेकि कोई निशान-बाज है।

आप लोगों को मुख्य शिक्षा मिलती है एक निशान को देखो अर्थात् बिन्दी को देखो।

तो बिन्दी को देखना भी निशान को देखना है।..."

 

 


18.05.1969
"... ज्योतिषी बने हो वा नहीं?

बापदादा जो ज्ञान और योग की ज्योतिषी दिखाते हैं उनसे क्या देखते हो?

हरेक के मुखड़े से, नयनों से, मस्तक से मालूम पड़ता है।

इसमें भी विशेष मस्तक और नयनों से मालूम पड़ता है।

आप ज्योतिषी बनकर हरेक को परख सकते हो?

नयनों में और मस्तक में वह रेखायें जरूर रहती हैं।

किसको परखना यह भी ज्योतिष विद्या है।

तो यह जो विद्या है परखने की यह कईयों में कम है।

ज्ञान और योग सीखते हैं लेकिन यह परखने की ज्योतिष विद्या भी जाननी है।

कोई भी व्यक्ति सामने आए तो आप लोगों को तो एक सेकेण्ड में उनके तीनों कालों को परख लेना चाहिए।

एक तो पास्ट में उनकी लाइफ क्या थी और वर्तमान समय उनकी वृत्ति, दृष्टि और भविष्य में कहाँ तक यह अपनी प्रालब्ध बना सकते हैं।

यह जानने की प्रैक्टिस चाहिए।

यह परखने की जो नालेज है वह बहुत कम है।

यह कमी अभी भरनी चाहिए।

वर्तमान समय जो आने वाला है उसमें अगर यह गुण नहीं होगा, कमी होगी तो धोखे में आ जायेंगे।

कई ऐसी आत्माएं आप के सामने आयेंगी जो अन्दर एक और बाहर से दूसरी होगी।

परीक्षा के लिए आयेंगी।

क्योंकि कई समझते हैं कि यह सिर्फ रटे हुए हैं।

तो कई रंग रूप से आर्टिफीसियल रूप में भी परखने लिए आयेंगे, भिन्न-भिन्न रूप से।

इसलिये यह ध्यान रखना है कि यह किसलिये आया है?

उनकी वृत्ति क्या है?

और अशुद्ध आत्माओं की भी बड़ी सम्भाल करनी है।

ऐसे-ऐसे केस भी बहुत होंगे दिन प्रतिदिन पाप आत्मायें तो बहुत होते हैं।

आपदायें, अकाले मृत्यु, पाप कर्म बढ़ते जाते हैं तो उन्हों की वासनायें जो रह जाती हैं वह फिर अशुद्ध आत्माओं के रूप में भटकती हैं।

इसलिये यह भी बहुत बड़ी सम्भाल रखनी है। ..."

 

 

 

16.06.1969
"...ब्राह्मणों का मुख्य कर्तव्य है पढ़ना और पढ़ाना।

इसमें बिजी रहेंगे तो और बातों में बुद्धि नहीं जायेगी।

तो अपने को पढ़ने और पढ़ाने में बिजी रखो।

आजकल तक बापदादा ने सुनाया है कि मन की वृत्ति और अव्यक्त दृष्टि से सर्विस कर सकते हो।

अपनी वृत्ति-दृष्टि से सर्विस करने में कोई बन्धन नहीं हैं।

जिस बात में स्वतन्त्र हो वह सर्विस करनी चाहिए।..."

 

 

 

16.10.1969
"...हरेक के मस्तिष्क के मणी की चमक बापदादा देखते है।

ऐसे ही अगर आप सभी भी मस्तिष्क के मणी को ही देखते रहो तो फिर यह दृष्टि और वृत्ति शुद्ध सतोप्रधान बन जायेगी।

दृष्टि जो चंचल होती है उसका मूल कारण यह है।

मस्तिष्क के मणी को न देख शारीरिक रूप को देखते हो।

रूप को न देखो लेकिन मस्तिष्क के मणी को देखो। ..."

 

 

 

09.11.1969
"...मधुरता से ही मधुसूदन का नाम बाला करेंगे।

यह मधुबन नाम है।

मधु अर्थात् मधुरता और बन में क्या विशेषता होती है?

बन में वैराग्य वृत्ति वाले जाते है।

तो बेहद की वैराग्य बुद्धि भी चाहिए।

फिर इससे सारी बातें आ जायेगी।

और आप सभी को कॉपी करने के लिए यहाँ आयेंगे।

सभी साचेंगे यह कैसे ऐसे बने हैं।

सभी के मुख से निकलेगा कि मधुबन तो मधुबन ही है।

तो यह दो विशेषतायें धारण करनी हैं - मधुरता और बेहद की वैराग्य वृत्ति।

दूसरे शब्दों में कहते हैं स्नेह और शक्ति।

आप सभी का सभी से जास्ती स्नेह है ना! बापदादा से।..."

 


28.11.1969/01
"...सम्पूर्ण समर्पण जो हो जाता है उसकी दृष्टि क्या होती है?

(शुद्ध दृष्टि, शुद्ध वृत्ति हो जाती है) लेकिन किस युक्ति से वह वृत्ति-दृष्टि शुद्ध हो जाती है?

एक ही शब्द में यह कहेंगे कि दृष्टि और वृत्ति में रूहानियत आ जाती है।

अर्थात् दृष्टि वृत्ति रुहानी हो जाती हैं।

जिस्म को नहीं देखते हैं तो शुद्ध, पवित्र दृष्टि हो जाती है।

जड़ चीज़ को आँखों से देखेंगे ही नहीं तो उस तरफ वृत्ति भी नहीं जायेगी।

दृष्टि नहीं जायेगी तो वृत्ति भी नहीं जायेगी।

दृष्टि देखती है तब वृत्ति भी जाती है।

रूहानी दृष्टि अर्थात् अपने को और दूसरों को भी रूह देखना चाहिए।

जिस्म तरफ देखते हुए भी नहीं देखना है, ऐसी प्रैक्टिस होनी चाहिए।

जैसे कोई बहुत गूढ़ विचार में रहते है, कुछ भी करते है, चलते, खाते-पीते हैं लेकिन उनको मालूम नहीं पड़ता है कि कहाँ तक आ पहुँचा हूँ, क्या खाया है।

इसी रीति से जिस्म को देखते हुए भी नहीं देखेंगे और अपने उस रूह को देखने में ही बिजी होंगे तो फिर ऐसी अवस्था हो जायेगी जो कोई भी आपसे पूछेंगे यह कैसी थी तो आपको मालूम नहीं पड़ेगा।

ऐसी अवस्था होगी।

लेकिन वह तब होगी जब जिस्मानी चीज़ को देखते हुए उस जिस्मानी लौकिक चीज़ को अलौकिक रूप में परिवर्तन करेंगे।

अपने में परिवर्तन करने के लिए जो लौकिक चीज़ें देखते हो या लौकिक सम्बन्धियों को देखते हो उन सभी को परिवर्तन करना पड़ेगा।

लौकिक में अलौकिकता की स्मृति रखेंगे।..."

 

 


28.11.1969/02
"...अपनी दृष्टि, वृत्ति, स्मृति को, सम्पत्ति को, समय को परिवर्तन में लाओ तब दुनिया को प्रिय लगेंगे। ..."

 

 


06.12.1969
"...आप के इस चैतन्य म्यूज़ियम में तीन मुख्य चित्र हैं।

भृकुटी, नयन और मुख।

इन द्वारा ही आपकी स्मृति, वृत्ति दृष्टि और वाणी का मालूम पड़ता है।

जैसे त्रिमूर्ति, लक्ष्मी नारायण और सीढ़ी यह तीन मुख्य चित्र हैं ना।

इसमें सारा ज्ञान आ जाता है।

वैसे ही इस चेहरे के अन्दर यह चित्र अनादि फिट हैं।

इनकी ऐसी डेकोरेशन हो जो दूर से यह चित्र अपने तरफ आकर्षण करें।

आकर्षण होने के बिना रह नहीं सकेंगे।

आप लोग म्यूज़ियम बनाते हो तो कोशिश करते हो ना कि चित्र ऐसे डेकोरेट हो जो दूर से आकर्षण करें।

किसको बुलाना भी न पड़े।

वैसे ही आप हरेक को अपना म्यूज़ियम ऐसा तैयार करना है।

जो कुछ सुना है उसको गहराई से सोचकर के एक-एक रंग में समा देना है।

जिन्होंने जितना गहराई से सुना है उतना अपने चलन में प्रत्यक्ष रूप में लाया है?

उन संस्कारों को प्रत्यक्ष करने के लिए एक-एक बात की गहराई में जाओ और अपने एक-एक रग में वह संस्कार समाओ।

कोई भी चीज़ को किसमें समाना होता है तो क्या करना होता है?

एक तो गहराई में जाना होता है और अन्दर दबाना होता है।

कूटना पड़ता है।

कूटना अर्थात् हरेक बात को महीन बनाना। ..."

 

 


20.12.1969
"...जैसे अशुद्ध प्रवृत्ति को छोड़ने के लिये कोई बात सोची क्या?

जेवर, कपड़े, बाल-बच्चे आदि कुछ भी नहीं देखा ना।

तो यह जैसे पवित्र प्रवृत्ति है इसमें फिर यह बातें देखने की क्या आवश्यकता है।

आगे सिर्फ स्नेह में थे।

स्नेह से यह सभी किया।

ज्ञान से नहीं।

सिर्फ स्नेह ने ऐसा एवररेडी बनाया।

अब स्नेह के साथ शक्ति भी है।

स्नेह और शक्ति होते हुए भी फिर इसमें एवररेडी बनने में देरी क्यों।

जैसे शुरू में एलान निकला कि सभी को इस घड़ी मैदान में आना है वैसे अब भी रिपीट जरूर होना है लेकिन भिन्न-भिन्न रूप में।

ऐसे नहीं कि बापदादा भविष्य को जानकर के आप सभी को एलान देवे और आप इस सर्विस के बन्धन में भी अपने को बांधे हुए रखो।

बन्धन होते हुए भी बन्धन में नहीं रहना है।..."

 

 

...work on points of year 1970 onwards is in progess for publishing...