16.06.1969
"...बापदादा ने सुनाया है कि मन की वृत्ति और अव्यक्त दृष्टि से सर्विस कर सकते हो।

अपनी वृत्ति-दृष्टि से सर्विस करने में कोई बन्धन नहीं हैं।

जिस बात में स्वतन्त्र हो वह सर्विस करनी चाहिए।..."

 

 

02.07.1970

"...आज सवेरे-सवेरे एक नज़ारा वतन से देख रहे थे कि हरेक बच्चा कहाँ तक बंधा हुआ है और हरेक का बंधन कहाँ तक टूटा है।

कहाँ तक नहीं टूटा है?

किसकी तो मोटी रस्सियाँ भी हैं, किसके कम भी हैं, कोई के कच्चे धागे भी हैं।

यह नज़ारा देख रहे थे कि किसके कच्चे धागे रह गए हैं, किसकी मोटी रस्सियाँ हैं, किसकी पतली भी हैं।

लेकिन फिर भी कहेंगे तो बंधन ना।

कोई न कोई कच्चा वा पक्का धागा है।

कच्चा धागा भी बंधन तो कहेंगे ना।

सिर्फ उन्हों को देरी नहीं लगेगी।

मोटी रस्सी वाले को देरी भी लगेगी और मेहनत भी लगेगी।

तो आज वतन से यह नज़ारा देख रहे थे।

हरेक अपने आप को तो जान सकते हैं।

मोटा रस्सा है वा पतला।

कच्चा धागा है वा पक्का।

बांधेली हो या स्वतंत्र?

स्वतंत्र का अर्थ है स्पष्ट।

फिर भी बापदादा हर्षित होते हैं।

कमाल तो करते हो, लेकिन बापदादा उससे भी आगे देखने चाहते हैं।..."

 

 

 

21.01.1971

"...बांधेली स्वतन्त्र रहने वालों से अच्छी हैं।

स्वतन्त्र अलबेले रहते हैं।..."

 

 

 

05.03.1971

"...जैसे आपकी प्रवृत्ति में कई आवश्यक बातें सामने आती हैं तो प्रबन्ध करते हो ना।

इस रीति अपने को स्वतन्त्र बनाने के लिए भी कोई न कोई प्रबन्ध रखो।

कोई साथी बनाओ।

आपस में भी एक-दो दैवी परिवार वाले सहयोगी बन सकते हैं।

लेकिन तब बनेंगे जब इतना एक- दो को स्नेह देकर सहयोगी बनायेंगे।

प्लैन रचना चाहिए कैसे अपने बन्धन को हल्का कर सकती हैं।

कई चतुर होते हैं तो अपने बन्धनों को मुक्त करने के लिए युक्ति रचते हैं।

ऐसे नहीं कि प्रबन्ध मिले तो निकल सकती हूँ।

प्रबन्ध अपने आप करना है।

अपने आप को स्वतन्त्र करना है।

दूसरा नहीं करेगा।

योगयुक्त होकर ऐसा प्लैन सोचने से इच्छा पूर्ति के लिए प्रबन्ध भी मिल जायेंगे।

सिर्फ निश्चय-बुद्धि होकर अपने उमंग को तीव्र बनाओ।

उमंग ढीला होता है तो प्रबन्ध भी नहीं मिलता, मददगार कोई नहीं मिलता।

इसलिए हिम्मतवान बनो तो मददगार भी कोई न कोई बन जायेंगे।

अब देखेंगे कि अपने को स्वतन्त्र बनाने की कितनी शक्ति हरेक ने अपने में भरी है।

मायाजीत तो हो।

लेकिन अपने को स्वतन्त्र बनाने की शक्ति भी बहुत ज़रूरी है।

यह पेपर होगा कि शक्ति कहाँ तक भरी है।

जो प्रवृत्ति में रहते स्वतन्त्र बन मददगार बनेंगी उनको इनाम भी भेजेंगे। ..."

 

 

 

20.05.1972

"...ज्ञानस्वरूप होने के बाद वा मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर सर्वशक्तिवान होने के बाद अगर कोई ऐसा कर्म जो युक्तियुक्त नहीं है वह कर लेते हो, तो इस कर्म का बन्धन अज्ञान काल के कर्मबन्धन से पद्मगुणा ज्यादा है।

इस कारण बन्धन-युक्त आत्मा स्वतन्त्र न होने कारण जो चाहे वह नहीं कर पाती।

महसूस करते हैं कि यह न होना चाहिए, यह होना चाहिए, यह मिट जाए, खुशी का अनुभव हो जाए, हल्कापन आ जाए, सन्तुष्टता का अनुभव हो जाए, सर्विस सक्सेसफुल हो जाए वा दैवी परिवार के समीप और स्नेही बन जाएं।

लेकिन किये हुए कर्मों के बन्धन कारण चाहते हुए भी वह अनुभव नहीं कर पाते हैं।

इस कारण अपने आपसे वा अपने पुरूषार्थ से अनेक आत्माओं को सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं और न रह सकते हैं।

इसलिए इस कर्मों की गुह्य गति को जानकर अर्थात् त्रिकालदर्शा बनकर हर कर्म करो, तब ही कर्मातीत बन सकेंगे।

छोटी गलतियां संकल्प रूप में भी हो जाती हैं, उनका हिसाब-किताब बहुत कड़ा बनता है।

छोटी गलती अब बड़ी समझनी है।..."

 

 

 

13.06.1973

"...अपने को सम्पूर्ण स्वतन्त्र समझते हो?

या कोई बात में परतन्त्र भी हो?

सम्पूर्ण स्वतन्त्र अर्थात् जब चाहो इस देह का आधार लो, जब चाहो इस देह के भान से ऐसे न्यारे हो जाओ जो जरा भी यह देह अपनी तरफ खींच न सके।

ऐसे अपनी देह के भान अर्थात् देह के लगाव से स्वतन्त्र, अपने कोई भी पुराने स्वभाव से भी स्वतन्त्र, स्वभाव से भी बन्धायमान न हो।

अपने संस्कारों से भी स्वतन्त्र।

अपने सर्व लौकिक सम्पर्क वा अलौकिक परिवार के सम्पर्क के बन्धनों से भी स्वतन्त्र।

ऐसे स्वतन्त्र बने हो?

ऐसे को कहा जाता है-’सम्पूर्ण स्वतन्त्र’।

ऐसी स्टेज पर पहुंचे हो वा अभी तक एक छोटी-सी कर्मेन्द्रिय भी अपने बंधन में बाँध लेती है? ..."

 

 

 

 

30.06.1973

"...स्वतन्त्र हो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराते हो?

जब कोई भी आप लोगों से पूछते हैं कि क्या सीख रहे हो या क्या सीखने के लिये जाते हो तो क्या उत्तर देते हो?

सहज ज्ञान और राजयोग सीखने जा रहे हैं।

यह तो पक्का है न कि यही सीख रहे हो।

जब सहज ज्ञान कहते हो तो सहज वस्तु को अपनाना और धारण करना सहज है तब तो सहज ज्ञान कहते हो न?

तो सदा ज्ञान स्वरूप बन गये हो?

जब सहज ज्ञान है तो सदा ज्ञान स्वरूप बनना क्या मुश्किल है?

सदा ज्ञान स्वरूप बनना यही ब्राह्मणों का धन्धा है। ..."

 

 

 

28.04.1974

"...अब तक भी संस्कारों से मजबूर हैं?

जो स्वयं के भी संस्कारों से मजबूर हैं वे अन्य को उनकी मजबूरियों से स्वतन्त्र कर सकें, यह सदाकाल के लिए नहीं हो सकता।

टेम्प्रेरी प्रभाव तो पड़ सकता है। ..."

 

 

 

30.06.1974

"...कर्म-बन्धन से मुक्त, सम्पन्न हुई आत्मा, इस कल्प के जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने वाली आत्मा, निराकार बाप की फर्स्ट नम्बर साथी आत्मा, विश्व के कल्याण प्रति निमित्त बनी हुई फर्स्ट आत्मा, स्वयं के प्रति और विश्व के प्रति सर्व- सिद्धि प्राप्त हुई आत्मा, जहाँ चाहे और जितना समय चाहे, वह वहाँ स्वतन्त्र रूप में पार्ट बजा सकती है।

जब अल्पकाल की सिद्धि प्राप्त करने वाली आत्माएं, अपनी सिद्धि के आधार पर अपने रूप परिवर्तन कर सकती हैं, तो सर्व-सिद्धि प्राप्त हुई आत्मा अव्यक्त रूपधारी बन कर, जितना समय चाहे क्या वह उतना समय ड्रामा- अनुसार नहीं रह सकती?

आत्मा को निराकारी व अव्यक्त स्टेज से व्यक्त में लाने का कारण क्या होता है?

एक कर्मों का बन्धन, दूसरा सम्बन्ध का बन्धन, तीसरा व्यक्त सृष्टि के पार्ट का बन्धन और देह का बन्धन-चोला तैयार होता है और आत्मा को पुराने से नये में आकर्षित करता है-तो इन सब के बन्धनों को सोचो।

स्थापना के पार्ट का जो बन्धन है, वह व्यक्त से अव्यक्त रूप में और ही तीव्र गति से हो रहा है।

इस कल्प के अन्दर अब अन्य देह के आकर्षण का बन्धन नहीं, देहधारी बन कर्म-बन्धनों में आने का बन्धन समाप्त कर लिया।

जब सर्व-बन्धनों से मुक्त आत्मा बन गई, तो यह व्यक्त देह व व्यक्त देश आत्मा को खींच नहीं सकते।

जैसे साइन्स द्वारा भी स्पेस में चले जाते हैं और धरनी के आकर्षण से परे हो जाते हैं, तो धरनी उनको खींच नहीं सकती।

ऐसे ही जब तक नये कल्प में, नये जन्म और नई दुनिया में पार्ट बजाने का समय नहीं आया है, तब तक यह आत्मा स्वतन्त्र है और वह व्यक्त-बन्धनों से मुक्त है। ..."

 

 

 

 

08.07.1974

"...कई बाप-दादा को ज्योतिषी समझ कर क्यू लगाते हैं।

क्या हमारी बीमारी मिटेगी?

क्या सर्विस में सफलता होगी?

क्या मेरा फलाना सम्बन्धी ज्ञान में चलेगा?

क्या हमारे गाँव व शहर में सर्विस वृद्धि को पावेगी?

क्या व्यवहार में सफलता होगी?

यह व्यवहार करूँ या यह व्यवहार छोडूं?

बिजनेस करूँ या नौकरी करूँ?

क्या मैं महारथी बन सकती हूँ?

क्या आप समझते हो, कि मैं बनूँगी?

ऐसे-ऐसे गृहस्थ-व्यवहार की छोटी-छोटी बातें, कि क्या मेरी सास का क्रोध कम होगा?

मैं बांधेली या बाँधेला हूं, क्या मेरा बन्धन टूटेगा?

क्या मैं स्वतन्त्र बनूंगी व बनूंगा अथवा कई यह भी विशेष बातें पूछते हैं कि क्या मैं टोटल सरेण्डर हूंगा?

क्या मेरी यह इच्छा पूरी होगी?

ऐसे यह भी क्यू होती है। ..."

 

 

 

10.02.1975

"...हर एक को स्वतन्त्र कर भट्ठी का अनुभव कराओ। ..."

 

 

 

26.04.1977/01

"...बाप-दादा भी स्वतंत्र बनने की ही शिक्षा देते रहते हैं।

आजकल के वातावरण प्रमाण स्वतंत्रता चाहते हैं।

सबसे पहली स्वतंत्रता पुरानी देह के अन्दर के सम्बन्ध से है।

इस एक स्वतंत्रता से और सब स्वतंत्रता सहज आ जाती हैं।

देह की परतंत्रता अनेक परतंत्रता में, न चाहते हुए भी ऐसे बांध लेती है जो उड़ते पक्षी आत्मा को पिंजरे का पक्षी बना देती है।

तो अपने आपको देखो स्वतंत्र पक्षी हैं वा पिंजरे के पक्षी हैं?

पुरानी देह वा पुराने स्वभाव संस्कार व प्रकृति के अनेक प्रकार के आकर्षण वश वा विकारों के वशीभूत होने वाली परतंत्र आत्मा तो नहीं हो?

परतंत्रता सदैव नीचे की ओर ले जाएगी अर्थात् उतरती कला की तरफ ले जायेगी। ..."

 

 

 

 

26.04.1977/02

"...अब अपना स्वतंत्र-दिवस मनाओ।

जैसे बाप सदा स्वतंत्र है - ऐसे बाप समान बनो।

बाप-दादा अभी भी बच्चों को परतंत्र आत्मा देख क्या सोचेंगे?

नाम है मास्टर सर्वशक्तिवान और काम है पिंजरे का पक्षी बनना?

जो अपने आपको स्वतंत्र नहीं कर सकते, स्वयं ही अपनी कमजोरियों में गिरते रहते वे विश्व परिवर्तक कैसे बनेंगे।

तो अपने बन्धनों की सूची (List) सामने रखो।

सूक्ष्म-स्थूल सबको अच्छी रीति चैक करो।

अब तक भी अगर कोई बन्धन रहा है तो बन्धनमुक्त कभी भी नहीं बन सकेंगे।

‘अब नहीं तो कब नहीं!’

सदा यही पाठ पक्का करो। समझा?

स्वतंत्रता ब्राह्मण जन्म का अधिकार है।

अपना जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त करो। ..."

 

 

 

 

05.05.1977

"... कमज़ोरियों को दूर करने का सहज साधन कौन सा है?

जो कुछ संकल्प में आता है, वह बाप को अर्पण कर दो।

जो भी आवे वह बाप को सामने रखते हुए जिम्मेवारी बाप को दो, तो स्वयं स्वतंत्र हो जाएंगे।

सिर्फ एक दृढ़ संकल्प रखो कि ‘मैं बाप का और बाप मेरा।’

जब मेरा बाप है, तो मेरे के ऊपर अधिकार होता है न?

अधिकारी स्वरूप में स्थित होंगे तो अधीनता ऑटोमेटिकली निकल जाएगी।

हर सेकेण्ड यह चैक करो कि अधिकारी स्टेज पर हूँ?

विश्व के मालिक का मैं बालक हूँ, यह पक्का है?

तो ‘बालक सो मालिक।’ ..."

 

 

 

 

05.06.1977

"...‘ट्रस्टी अर्थात् मेरापन नहीं।’ जब मेरापन समाप्त हो जाता, तो लगाव भी समाप्त हो गया।

ट्रस्टी बन्धन वाला नहीं होता, स्वतंत्र आत्मा होता, किसी भी आकर्षण में परतंत्र होना भी ट्रस्टीपन नहीं।

‘ट्रस्टी माना ही स्वतंत्र।’ ...""

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