1.

"...देवियाँ स्वयं सिद्धि प्राप्त की हुई हैं।

तब दूसरों को रिद्धि सिद्धि दे सकती हैं।

तुम्हारे पुरुषार्थ की सिद्धि तब होगी जब संस्कारों का मिलन होगा।

सबसे जास्ती भक्तों की क्यू बड़ी कहाँ लगती हैं? (देवियों के पास) जैसे हनुमान के मंदिर में व् देवियों के मंदिर में ज्यादा भीड़ लगती है।

इससे क्या सिद्ध होता है?

 साकार रूप में भी क्यू कौन देखेगा?

 प्रत्यक्षता के बाद जो क्यू लगेगी वह कौन देखेंगे? 

बच्चे ही देखेंगे।

बापदादा गुप्त है प्रत्यक्ष रूप में बच्चे ही देखेंगे।

तो उसका यादगार प्रत्यक्ष रूप में बड़ी ते बड़ी क्यू भक्तों की, बच्चों के यादगार रूप पर ही लगती है।

लेकिन यह क्यू लगेगी कब? 

जब संस्कार न मिलने का एक शब्द निकल जायेगा तब वह क्यू भी लगेगी।

इस भट्ठी में और पढाई नहीं करनी है लेकिन अंतिम सिद्धि का स्वरुप बनकर दिखाना है।

यह संगठन संस्कारों को मिलाने के लिए है।

कोई भी चीज़ को जब मिलाया जाता है तो क्या करना होता है?

 संस्कारों को मिलाने के लिए दिलों का मिलन करना पड़ेगा।

दिल के मिलन से संस्कार भी मिलेंगे तो संस्कारों को मिलाने के लिए

भुलाना,

मिटाना और

समाना यह तीनों ही बातें करनी पड़ेंगी।

कुछ मिटाना पड़ेगा,

कुछ भुलाना पड़ेगा,

कुछ समाना पाएगा – तब यह संस्कार मिल ही जायेंगे।

यह है अंतिम सिद्धि का स्वरुप बनना।

अब अंतिम स्थिति को समीप लाना है।

एक दो की बातों को स्वीकार करना और सत्कार देना।

अगर स्वीकार करना और सत्कार देना यह दोनों ही बातें आ जाती हैं तो...

फिर सम्पूर्णता और सफलता दोनों ही समीप आ जाती हैं।..."

 

Ref:- Avyakt Vani, 23.03.1970