25.01.1969

मनमनाभव मध्याजी भव

यह जो कभी-कभी मुख से निकलता है, कैसे करें, क्या होगा, यह जो शब्द निर्बलता के हैं, वह नहीं निकलने चाहिए।

जब मन में आता है तो मुख पर आता है।

परन्तु मन में नहीं आना चाहिए।

मनमनाभव मध्याजी भव।

मनमनाभव का अर्थ बहुत गुह्य है।

मन, बिल्कुल जैसे ड्रामा का सेकेण्ड बाई सेकेण्ड जिस रीति से, जैसा चलता है, उसी के साथ-साथ मन की स्थिति ऐसे ही ड्रामा की पटरी पर सीधी चलती रहे।

जरा भी हिले नहीं।

चाहे संकल्प से, चाहे वाणी से।

ऐसी अवस्था हो, ड्रामा की पटरी पर चल रहे हो।..."




07.05.1969

मनमनाभव

"...अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होने के लिये शुरू से लेकर एक सलोगन सुनाते आते हैं। अगर वह याद रहे तो कभी भी कोई माया के विघ्नों में हार नहीं हो सकती है।

ऐसा सर्वोत्तम सलोगन हरेक को याद है?

हर मुरली में भिन्न-भिन्न रूप से वह सलोगन आता ही है।

मनमनाभव, हम बाप की सन्तान हैं,..."




18.09.1969

जो मनमनाभव होगा...

"...जबकि तन, मन, धन दे दिया है तो मन में क्या चलाना है वो भी श्रीमत मिलती है, तन से क्या करना है, वो भी मत मिलती है, धन से क्या करना है सो भी मालूम है। जिनको दिया उनकी मत पर ही तो चलना होगा।

जिसने मन दे दिया उसकी अवस्था क्या होगी?

मनमनाभव।

उसका मन वहाँ ही लगा रहेगा।

इस मंत्र को कभी भूलेंगे नहीं।

जो मनमनाभव होगा उसमें मोह हो सकता है?

तो मोहजीत बनने के लिए अपने वायदे याद करो।..."




03.10.1969

मनमनाभव का मुख्य मन्त्र...

"...अगर मन को समर्पण कर दिया तो मन को बिना श्रीमत के यूज नहीं कर सकते।

अब बताओ धन को श्रीमत से यूज करना तो सहज है तन को भी यूज करना सहज है।

लेकिन मन सिवाय श्रीमत के एक भी संकल्प उत्पन्न नहीं करे - इस स्थिति को कहा जाता है समपर्ण।

इसलिए ही मनमनाभव का मुख्य मन्त्र है।

अगर मन सम्पूर्ण समर्पण है तो तन-मन-धन- समय सम्बन्ध शीघ्र ही उस तरफ लग जाते हैं।

तो मुख्य बात ही है मन को समर्पण करना अर्थात् व्यर्थ संकल्प, विकल्पों को समर्पण करना।

वो ही परख है सम्पूर्ण परवाने की।

सम्पूर्ण समर्पण वालों को मन में सिवाय उनके (बापदादा के) गुण, कर्तव्य और सम्बन्ध के कुछ और सूझता ही नहीं।..."




08.01.1979

सदा मनमनाभव रहने वाले...

"...मोह का बीज है सम्बन्ध – उस बीज को कट करने से सब शिकायतें समाप्त - मातायें सब नष्टोमोहा हो ना।

जब बाप के साथ सर्व सम्बन्ध जोड़ लिए तो और किसमें मोह हो सकता है क्या?

बिना सम्बन्ध के कोई में मोह नहीं हो सकता।

सदा यह याद रखो जब सम्बन्ध नहीं तो मोह कहाँ से आया, मोह का बीज है सम्बन्ध।

जब बीज को ही कट कर दिया तो बिना बीज से वृक्ष कैसे पैदा होगा।

अगर अभी तक होता है तो सिद्ध है कि कुछ तोड़ा है कुछ जोड़ा है, दो तरफ है।

तो दो तरफ वाले को न मंजिल मिलती न किनारा होता।

तो ऐसे तो नहीं हो ना।

सब नष्टोमोहा हो ना।

फिर कभी शिकायत नहीं करना कि क्या करें बन्धन हैं, कटता नहीं...जहाँ मोह नष्ट हो गया तो स्मृति स्वरूप स्वत: हो जाते फिर कटता नहीं मिटता नहीं यह भाषा खत्म हो जाती।

सर्व प्राप्ति स्वरूप हो जाते।

सदा मनमनाभव रहने वाले मन के बन्धन से भी मुक्त रहते हैं। ..."




06.01.1990

'मनमनाभव' - इस मंत्र की सदा स्मृति रहे...

"...मन की स्वच्छता या पवित्रता इसकी भी परसेंटेज देखो।

सारे दिन में किसी भी प्रकार का अशुद्ध संकल्प मन मैं चला तो इसको सम्पूर्ण स्वच्छता नहीं कहेंगे ।

मन के प्रति बापदादा का डायरेक्शन है - मन को मेरे में लगाओ वा विश्व-सेवा में लगाओ।

'मनमनाभव' - इस मंत्र की सदा स्मृति रहे।

इसको कहते है- मन की स्वच्छता वा पवित्रता ।

और किसी तरफ भी मन भटकता है तो भटकना अर्थात् अस्वच्छता।

इस विधि से चेक करो कि कितनी परसेन्ट में स्वच्छता धारण हुई? ..."




31.03.1990

ब्राह्मण-जीवन का फाउण्डेशन महामंत्र - मनमनाभव...

"...देखो, ब्राह्मण-जीवन का फाउण्डेशन महामंत्र क्या है?

मनमनाभव ।

तो मनमनाभव नहीं हुए हो?

तो ज्ञान सहित रहम दिल आत्मा कभी किसी के ऊपर चाहे गुणों के ऊपर, चाहे सेवा के ऊपर, चाहे किसी भी प्रकार के सहयोग प्राप्त होने के कारण आत्मा पर प्रभावित नहीं हो सकती।

क्योंकि बेहद की वैरागी होने के कारण बाप बाप के स्नेह, सहयोग, साथ - इनके सिवाए और कुछ उसको दिखाई नहीं देगा।

बुद्धि में आयेगा ही नहीं।

तुम्हीं से उठूं, तुम्हीं से सोऊं, तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से सेवा करूं, तुम्हीं साथ कर्मयोगी बनूं - यही स्मृति सदा उस आत्मा को रहती है।

भले कोई श्रेष्ठ आत्मा द्वारा सहयोग मिलता भी है लेकिन उसका भी दाता कौन?

तो एक बाप की तरफ ही बुद्धि जायेगी ना।..."




01.04.1992

चाहे अपने स्थान पर मनमनाभव रहते... "...जिस आत्मा को जो वर्सा है वह उसको प्राप्त होना ही है।

वर्से से वंचित कोई नहीं रह सकता।

चाहे साकार में सम्मुख हैं, चाहे अपने स्थान पर मनमनाभव रहते, वर्सा अवश्य प्राप्त होना है।

डबल नॉलेजफुल होना है, हाफ नालेजफुल नहीं बनो। ..."




01.02.1994

जो मनमनाभव हो गये ...

"...बंधन है पिंजड़ा और निर्बन्धन है उड़ना।

मन का बंधन नहीं होना चाहिए।

अगर किसी को तन का बंधन है तो भी मन उड़ता पंछी है।

तो मन का कोई बंधन है या थोड़ा-थोड़ा आ जाता है?

जो मनमनाभव हो गये वह मन के बंधन से सदा के लिए छूट गये। ..."




18.02.1994

सर्व सम्बन्धों का रस वा अनुभूतियां करना ही मनमनाभव है...

"...कइयों को पेपर पढ़ने के बिना चैन नहीं आता है।

पेपर भी आपके पास है।

पेपर पढ़ो।

डान्स और साज़ तो जानते ही हो।

बिना थकावट के डांस करते हो।

मनमनाभव होना ही सबसे बड़ा मनोरंजन है।

क्योंकि सर्व सम्बन्धों का रस वा अनुभूतियां करना ही मनमनाभव है।

सिर्फ बाप के रूप में या विशेष तीन रूपों के सम्बन्ध से अनुभव नहीं है लेकिन सर्व सम्बन्धों के स्नेह का अनुभव कर सकते हो।

सम्बन्धों से याद तो करते हो लेकिन फर्क क्या हो जाता है?

एक है दिमाग से नॉलेज के आधार पर सम्बन्ध को याद करना और दूसरा है दिल से उस सम्बन्ध के स्नेह में, लव में लीन हो जाना।

आधा तो करते हो बाकी आधा रह जाता है।

इसलिये थोड़ा समय तो ठीक रहते हो, थोड़े समय के बाद सिर्फ दिमाग से ही सम्बन्ध को याद किया तो दिमाग में दूसरी बात आने से दिल बदल जाता है।

फिर मेहनत करनी पड़ती है।

फिर क्या कहते हो-हमने याद तो किया, बाबा मेरा कम्पैनियन है, लेकिन कम्पैनियन ने तोड़ तो निभाई नहीं, अनुभव तो कुछ हुआ नहीं - ये दिमाग से याद किया।

दिल में स्नेह को समाया नहीं।

जब भी कोई बात दिमाग में आती है तो वह निकलती भी जल्दी है।

लेकिन दिल में समा जाती है तो उसको चाहे सारी दुनिया भी दिल से निकालना चाहे, तो भी नहीं निकाल सकती।

तो सर्व सम्बन्धों को समय प्रमाण, जिस समय जिस सम्बन्ध की आवश्यकता है, आवश्यकता है फ्रेंड की और याद करो बाप को तो मजा नहीं आयेगा।

इसलिये जिस समय, जिस सम्बन्ध की अनुभूति चाहिये, उस सम्बन्ध को स्नेह से, दिल से अनुभव करो।

फिर मेहनत भी नहीं लगेगी और बोर भी नहीं होंगे, सदा मनोरंजन।..."




10.03.1996

सदा नेचरल मनमनाभव की स्थिति...

"... ‘करावनहार’ होकर कर्म करो, कराओ, कर्मेन्द्रियां आपसे नहीं करावें लेकिन आप कर्मेन्द्रियों से कराओ।

बिल्कुल अपने को न्यारा समझ कर्म कराना-यह कानसेसनेस इमर्ज रूप में हो।

मर्ज रूप में नहीं।

मर्ज रूप में कभी ‘करावनहार’ के बजाए कर्मेन्द्रियों के अर्थात् मन के, बुद्धि के, संस्कार के वश हो जाते हैं।

कारण?

‘करावनहार’ आत्मा हूँ, मालिक हूँ, विशेष आत्मा, मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा हूँ, यह स्मृति मालिकपन की स्मृति दिलाती है।

नहीं तो कभी मन आपको चलाता और कभी आप मन को चलाते।

इसीलिए सदा नेचरल मनमनाभव की स्थिति नहीं रहती।

मैं अलग हूँ बिल्कुल, और सिर्फ अलग नहीं लेकिन मालिक हूँ, बाप को याद करने से मैं बालक हूँ और मैं आत्मा कराने वाली हूँ तो मालिक हूँ।

अभी यह अभ्यास अटेन्शन में कम है। ..."




18.01.1998

मन तो मनमनाभव था ही ...

"...आप विश्व के शिक्षक के मास्टर विश्व शिक्षक हो, रचता हो, समय रचना है तो हे रचता आत्मायें रचना को शिक्षक नहीं बनाओ।

ब्रह्मा बाप ने समय को शिक्षक नहीं बनाया, बेहद का वैराग्य आदि से अन्त तक रहा।

आदि में देखा इतना तन लगाया, मन लगाया, धन लगाया, लेकिन जरा भी लगाव नहीं रहा।

तन के लिए सदा नेचुरल बोल यही रहा - बाबा का रथ है।

मेरा शरीर है, नहीं।

बाबा का रथ है।

बाबा के रथ को खिलाता हूँ, मैं खाता हूँ, नहीं।

तन से भी बेहद का वैराग्य।

मन तो मनमनाभव था ही।

धन भी लगाया, लेकिन कभी यह संकल्प भी नहीं आया कि मेरा धन लग रहा है।

कभी वर्णन नहीं किया कि मेरा धन लग रहा है या मैंने धन लगाया है।

बाबा का भण्डारा है, भोलेनाथ का भण्डारा है।

धन को मेरा समझकर पर्सनल अपने प्रति एक रूपये की चीज़ भी यूज नहीं की। ..."




30.11.2006

मनमनाभव के मन्त्र को यन्त्र बना दो...

"...बापदादा ने पहले भी सुनाया है - अगर ज्यादा से ज्यादा सर्व खज़ाने का खाता जमा करना है तो मनमनाभव के मन्त्र को यन्त्र बना दो।

जिससे सदा बाप के साथ और पास रहने का स्वत: अनुभव होगा।

पास होना ही है, तीन रूप के पास हैं - एक है पास रहना, दूसरा है जो बीता सो पास हुआ और तीसरा है पास विद ऑनर होना।

अगर तीनों पास हैं, तो आप सबको राज्य अधिकारी बनने की फुल पास है। ..."




30.11.2007

बापदादा का महामन्त्र भी है मनमनाभव... "...बापदादा ने दादी के साथ रिजल्ट देखा - तो जितना बालकपन का नशा रहता है, उतना मालिकपन का कम रहता है।

क्यों?

अगर स्वराज्य के मालिकपन का नशा सदा रहता तो यह जो बीच-बीच में समस्यायें वा विघ्न आते हैं वह आ नहीं सकते।

वैसे देखा जाता है तो समस्या वा विघ्न आने का आधार विशेष मन है।

मन ही हलचल में आता है।

इसीलिए बापदादा का महामन्त्र भी है मनमनाभव।

तनमनाभव, धनमनाभव नहीं है, मनमनाभव है।

तो अगर स्वराज्य का मालिक है तो मन मालिक नहीं है।

मन आपका कर्मचारी है, राजा नहीं है।

राजा अर्थात् अधिकारी।

अधीन वाले को राजा नहीं कहा जाता है।

तो रिजल्ट में क्या देखा?

कि मन का मालिक मैं राज्य अधिकारी मालिक हूँ।

यह स्मृति, यह आत्म स्थिति की सदा स्थिति कम रहती है।

है पहला पाठ, आप सबने पहला पाठ क्या किया था?

मैं आत्मा हूँ, परमात्मा का पाठ दूसरा नम्बर है।

लेकिन पहला पाठ मैं मालिक राजा इन कर्मेन्द्रियों का अधिकारी आत्मा हूँ।

शक्तिशाली आत्मा हूँ।

सर्वशक्तियां आत्मा के निजीगुण हैं।

तो बापदादा ने देखा कि जो मैं हूँ, जैसा हूँ, उसको नेचरल स्वरूप स्मृति में चलना, रहना, चेहरे से अनुभव होना, समस्या से किनारा होना, इसमें अभी और अटेन्शन चाहिए।

सिर्फ मैं आत्मा नहीं, लेकिन कौन सी आत्मा हूँ, अगर यह स्मृति में रखो तो मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा के आगे समस्या वा विघ्न की कोई शक्ति नहीं जो आ सके।..."




18.01.2009

सिक्युरिटी करो उन्हों को मनमनाभव का मन्त्र देकर...

"...एक तो जो हंगामा करने वाले हैं उनसे सिक्युरिटी करते हो दूसरे जो बिचारे चाहना रखते हैं कि हम सदा सुख में रहे शान्ति में रहे उनकी भी सिक्युरिटी करो उन्हों को मनमनाभव का मन्त्र देकर शिव मन्त्र देकर के कम से कम खुश रहें खुशी की सिक्युरिटी खुशी गंवायें नहीं यह सिक्युरिटी का रास्ता बताओ।

तो डबल सिक्युरिटी करो तो कितनी आपको आशीर्वाद मिलेगी।

दु:खी को सुखी करना गमगीन को खुश करना तो आशीर्वाद मिलेगी और ऐसा हर एक के घर को छोटा सा मन्त्र दो जो खुशी नहीं गंवाये हर घर में खुशी हो जितनी यह सेवा करेंगे तो डबल सिक्युरिटी वाले बन जायेंगे।

फैलाओ।

हर स्थान पर यह रेसपान्सिबिल्टी दो

हैं तो सब स्थान वाले अपने देश में पहले यह सिक्युरिटी का काम करो गांव गांव बड़े बड़े स्थान खुशनुमा हो जायें।...."




24.10.2010

मन बिजी भी रहेगा तो मनमनाभव होना सहज हो जायेगा...

"...अभी जितना वाचा द्वारा या भिन्न-भिन्न विधियों द्वारा कर रहे हो सफलता भी है बापदादा खुश भी है सिर्फ अभी मन्सा द्वारा अनेक आत्माओं को सुख की किरण शान्ति की किरण खुशी की किरण प्रेम की किरण पहुंचाना यह सेवा भी साथ-साथ करो।

अपने ही संस्कार परिवर्तन या दूसरों के संस्कार को सहयोग देना इसमें टाइम कईयों का ज्यादा जाता है।

तो मन्सा सेवा द्वारा भिन्न-भिन्न किरणें आत्माओं को देना इसका अटेन्शन आगे चलके बहुत आवश्यकता पड़ेगी उसके ऊपर भी ध्यान देते रहो।

जो बच्चे समझते हैं कि यह सेवा मैं करता रहता हूँ वह हाथ उठाओ।

अच्छा।

कर रहे हैं उन्हों को मुबारक है और जो नहीं कर रहे हैं उनको करना चाहिए क्योंकि आगे चलके सरकमस्टांश ऐसे बनेंगे जो सुनने और सुनाने वाले दोनों का मेल मुश्किल हो जायेगा इसलिए दोनों सेवा अभी से जितना हो सके उतनी आदत डालो।

मन बिजी भी रहेगा तो मनमनाभव होना सहज हो जायेगा।

मन बिजी होने से संस्कार स्वभाव को सहज परिवर्तन करने में मदद मिलेगी। "




30.11.2010

बाप का मन्त्र भी है मनमनाभव...

"...बार-बार यह एक्सरसाइज करो तो कार्य करते भी यह नशा रहेगा क्योंकि बाप का मन्त्र भी है मनमनाभव।

इसी मन्त्र को मन के अनुभव से मन यन्त्र बन जायेगा मायाजीत बनने में क्योंकि बापदादा ने बता दिया है कि जितना समय आगे बढ़ेगा उस अनुसार एक सेकण्ड में स्टॉप लगाना होगा।

तो यह एक्सरसाइज करने से मनमनाभव होने में मदद मिलेगी क्योंकि बापदादा ने देखा कि जो भी भाषण करते हो या किसको भी सन्देश देते हो तो क्या कहते हो?

हम विश्व को परिवर्तन करने वाले हैं ।

तो जब विश्व को परिवर्तन करना है तो पहले अपने मन को ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो जिस समय जो संकल्प करने चाहे वही मन संकल्प कर सकता है।

सेकण्ड में आर्डर करो जैसे इस शरीर की और कर्मेन्द्रियों को आर्डर करते हो ऊपर हो नीचे हो तो करती हैं ना!

ऐसे मन व्यर्थ अयथार्थ से बच जाये मन के मालिक हो मेरा मन कहते हो ना!

तो मेरा मन इतना आर्डर में रहे उसके लिए यह मन की एक्सरसाइज बताई।

बापदादा ने देखा हर एक बच्चा यही चाहता है कि हमें मन जीत जगतजीत बनना है इसलिए आने वाले समय के पहले यह अभ्यास जहाँ चाहे वहां मन सहज टिक जाए।..."




15.12.2010

जो योग लगाते हो तो मनमनाभव... "...देखो जो योग लगाते हो तो मनमनाभव कहते हो और यह आधार है फाउण्डेशन का।

मन का काम ही है संकल्प करना संकल्प द्वारा ही याद के यात्रा की अनुभूति करते हो।

एक दो में भी खास भिन्न-भिन्न संकल्प देके अभ्यास कराते हो ना!

तो सब चेक करो - समय की रफ्तार सारे दिन में चलते फिरते कर्म करते सम्बन्ध में आते अमूल्य रूप से रहा?

क्योंकि समय अमूल्य है।

संकल्प सर्वशक्तिवान बनाता है। ..."




19.10.2011

मन, जो मनमनाभव होने नहीं देता... "...अभी बापदादा चाहते हैं, रिजल्ट में देखा तो अभी तक सम्पूर्ण पवित्रता के हिसाब से व्यर्थ संकल्प भी अपवित्रता का बीज है।

तो बापदादा ने देखा यह व्यर्थ संकल्प चलना, यह मैजारिटी बच्चों में अब भी संस्कार रहा हुआ है।

एक व्यर्थ संकल्प और दूसरा व्यर्थ समय यह मैजारिटी बच्चों में अब भी दिखाई देता है।

और व्यर्थ संकल्प का आधार है मन, जो मनमनाभव होने नहीं देता क्योंकि बापदादा ने काफी समय से इशारा दे दिया है कि जो कुछ होना है वह अचानक होना है।

तो अचानक के हिसाब से बापदादा ने चेक किया मैजारिटी बच्चों में यह व्यर्थ संकल्प का संस्कार है।

तो जब ब्रह्मा बाप व्यर्थ समय, व्यर्थ संकल्प के विजयी बन कर्मातीत हुए तो फॉलो फादर।..."




18.01.2012

मनमनाभव के वायुमण्डल में मन के व्यर्थ को...

"...कहा हुआ भी है मनजीत जगतजीत।

तो मनमनाभव के वायुमण्डल में मन के व्यर्थ को सम्पन्न करना है।

कर सकते हैं?

करेंगे?

वह हाथ उठाओ।

बापदादा इनाम देगा।

अपनी रिजल्ट आप देखना।

मन खुश तो मन की खुशी बांटेंगे।

यह पुरूषार्थ में नम्बर सभी आगे से आगे लेने का अटेन्शन रखो।

व्यर्थ समाप्त, संकल्प समय दोनों समाप्त और समर्थ संकल्प, समर्थ समय आने वाले समय में वायुमण्डल में फैलेगा।..."