Samparday
16.10.1969

"...अगर परखने की प्रैक्टिस होगी तो जब दुनिया में कार्य अर्थ जाते हो और आसुरी सम्प्रदाय के साथ सम्बन्ध रखना पड़ता है तो परखने की प्रैक्टिस होने से बहुत बातों में विजयी बन सकते हो।

अगर परखने की शक्ति नहीं तो विजयी नहीं बन सकते।..."

 

 

 

 

05.03.1970

"...मधुबन में विशेष रेस्पोंसिबिलिटी पाण्डव-दल की है।

तो उस दल में अब बल होना चाहिए।

पाण्डव -दल में बल होगा तो फिर इस पाण्डव भवन के अन्दर आसुरी सम्प्रदाय तो क्या लेकिन आसुरी संकल्प भी नहीं आ सकते।..."

 

 

 

 

24.05.1971

"...माया संकल्प रूप में भी हिला नहीं सकती।

ऐसे अचल बन जायेंगे।

यादगार है ना कि रावण सम्प्रदाय ने पांव हिलाने की कोशिश की लेकिन ज़रा भी हिला न सके।

ऐसा नशा रहता है कि यह हमारा यादगार है? ..."

 

 

 

 

03.05.1972

"...आसुरी संस्कारों के वशीभूत होने वाले को किस सम्प्रदाय में गिना जायेगा?

आप कौन हो?

(ईश्वरीय सम्प्रदाय) तो ईश्वरीय सम्प्रदाय वालों के पास आसुरी संस्कार भी नहीं आने चाहिए।

अभी आसुरी संस्कार आते हैं वा भस्म हो गये हैं?

(आते हैं) तो फिर क्या बन जाते हो?

अपना रूप बदल बहुरूपी बन जाते हो क्या?

अभी-अभी ईश्वरीय सम्प्रदाय, अभी- अभी आसुरी संस्कारों के वश हो गये तो क्या बन गये?

बहुरूपी हो गये ना।

अगर अभी-अभी अपने से आसुरी संस्कारों को भस्म करने की हिम्मत रखकर संहारी रूप बने तो मुबारक है।

अभी यह भी ध्यान रखना, सूक्ष्म सजाओं के साथ-साथ स्थूल सजायें भी होती हैं।

ऐसे नहीं समझना - सूक्ष्म सजा तो अपने अन्दर भोग कर खत्म करेंगे।

नहीं। सूक्ष्म सजाएं सूक्ष्म में मिलती रहती हैं और दिन प्रतिदिन ज्यादा मिलती जायेंगी लेकिन ईश्वरीय मर्यादाओं के प्रमाण कोई भी अगर अमर्यादा का कर्त्तव्य करते हैं, मर्यादा का उल्लंघन करते हैं तो ऐसी अमर्यादा से चलने वाले को स्थूल सज़ाएं भी भोगनी पड़े।

फिर तब क्या होगा?

अपने दैवी परिवार के स्नेह, सम्बन्ध और जो वर्तमान समय की सम्पत्ति का खज़ाना है उनसे वंचित होना पड़े।

इसलिए अब बहुत सोच- समझकर कदम उठाना है।

ऐसे लॉज (नियम) शक्तियों द्वारा स्थापन हो रहे हैं।

पहले से ही सावधान करना चाहिए ना।

फिर ऐसे न कहना कि ऐसे तो हमने समझा नहीं था, यह तो नई बात हो गई।

तो पहले से ही सुना रहे हैं।

सूक्ष्म लाज़ के साथ स्थूल लाज वा नियम भी हैं।

जैसे-जैसे गलती, उसी प्रमाण ऐसी गलती करने वाले को सजा।

इसलिए ला-मेकर हो तो ला को ब्रेक नहीं करना।

अगर ला-मेकर भी ला को ब्रेक करेंगे तो फिर ला-फुल राज्य करने के अधिकारी कैसे बनेंगे?

जो स्वयं को ही ला के प्रमाण नहीं चला सकता वह लाफुल राज्य कैसे चला सकेगा?

इसलिए अब अपने को ला-मेकर समझकर हर कदम ला-फुल उठाओ अर्थात् श्रीमत प्रमाण उठाओ।

मन-मत मिक्स नहीं करना।

माया श्रीमत को बदलकर मन को मिक्स कर उसको ही श्रीमत समझाने की बुद्धि देती है।

माया के वश मनमत को भी श्रीमत समझने लग पड़ते हैं, इसलिए परखने की शक्ति सदैव काम में लगाओ।..."

 

 

 

 

 

23.09.1973

"...अब लाइट और माइट दोनों का बैलेन्स होना चाहिए।

सिर्फ लाइट से भी काम न होगा और सिर्फ माइट से भी काम नहीं होगा।

दोनों का बैलेन्स जब ठीक होगा तब सब अन्धों की औलाद अन्धों को (शास्त्र में भी कौरव सम्प्रदाय के लिए गाया हुआ है कि अन्धों की औलाद अन्धे हैं) अपनी लाइट और माइट के द्वारा कौन-सा वरदान देंगे और वे वरदान में क्या प्राप्त करेंगे?

डिवाइन इनसाइट अर्थात् उन्हें तीसरे नेत्र का वरदान दो। ..."

 

 

 

 

07.03.1981

"...बच्चों के स्नेह का रेसपान्ड देने के लिए बाप आये हैं।

बच्चों ने स्नेह का रेसपान्ड सेवा में संगठित रूप में सहयोग का दिखाया।

बाप-दादा स्नेह रूपी संगठन को देख अति हर्षित हो रहे हैं।

लगन से प्रकृति और कलियुगी आसुरी सम्प्रदाय के विघ्नों कोपार करते निर्विघ्न कार्य समाप्त किया इस सहयोग और लगन के रिर्टन में बाप-दादा बच्चों को बधाई के पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं।

बाप का कार्य सो मेरा कार्य इसी लगन से सफलता की मुबारक हो।

यह एक संगठन की शक्ति का पहला कार्य अभी आरम्भ किया है।

अभी सैम्पुल के रूप में किया है।

अभी तो आपकी रचना और वृद्धि को पाते हुए और विशाल कार्य के निमित्त बनायेगी।

अनुभव किया कि संगठित शक्ति के आगे भिन्न-भिन्न प्रकार के विघ्न कैसे सहज समाप्त हो जाते हैं।

सबका एक श्रेष्ठ संकल्प कि सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है इस संकल्प ने कार्य को सफल बनाया।

बच्चों के हिम्मत उल्लास मेहनत और मुहब्बत को देख बाप-दादा भी हर्षित हो रहे हैं।..."

 

 

 

 

03.04.1982

"...अभिमान के सिर वाली शक्ति नहीं लेकिन सदा सर्व भुजाधारी अर्थात् सर्व परिस्थिति में ‘सहयोगी'।

रावण के 10 सिर वाली आत्मायें हर छोटी-सी परिस्थिति में भी कभी सहयोगी नहीं बनेगी।

क्यों, क्या, कैसे के सिर द्वारा अपना उल्टा अभिमान प्रत्यक्ष करती रहेंगी।

क्यों का क्वेश्चन हल करेंगी तो फिर कैसे का सिर ऊँचा हो जायेगा अर्थात् एक बात को सुलझायेंगी तो फिर दुसरी बात शुरू कर देंगी।

दूसरी बात को ठीक करेंगी तो तीसरा सिर पैदा हो जायेगा।

बार-बार कहेंगे यह बात ठीक है लेकिन यह क्यों?

वह क्यों?

इसको कहा जाता है कि एक बात के 10 शीश लगाने वाली शक्ति।

सहयोगी कभी नहीं बनेंगे, सदा हर बात में अपोजीशन करेंगे।

तो अपोजीशन करने वाले रावण सम्प्रदाय हो गये ना।

चाहे ब्राह्मण बन गये लेकिन उस समय के लिए आसुरी शक्ति का प्रभाव होता है, वशीभूत होते हैं।

और शक्ति स्वरूप हर परिस्थिति में, हर कार्य में सदा सहयोगी बन औरों को भी सहयोगी बनायेंगे।

चाहे स्वयं को सहन भी करना पड़े, त्याग भी करना पड़े लेकिन सदा सहयोगी होंगे।

सहयोग की निशानी भुजायें हैं, इसलिए कभी भी कोई संगठित कार्य होता है तो क्या शब्द बोलते हो?

अपनी-अपनी अँगुली दो, तो यह सहयोग देना हुआ ना।

अँगुली भी भुजा में है ना।

तो भुजायें सहयोग की ही निशानी दिखाई हैं।

तो समझा शक्ति की भुजायें और रावण के सिर।

तो अपने को देखो कि सदा के सहयोगी मूर्त बने हैं?

त्याग मूर्त बनने का पहला कदम फालो फादर के समान किया है?

ब्रह्मा बाप को देखा, सुना - संकल्प में, मुख में सदैव क्या रहा?

यह बाप का रथ है।

तो आपका रथ किसका है?

क्या सिर्फ ब्रह्मा ने रथ दिया वा आप लोगों ने भी रथ दिया?

ब्रह्मा का प्रवेशता का पार्ट अलग है लेकिन आप सबने भी तन तेरा कहा - न कि तन मेरा।

आप सबका भी वायदा है जैसे चलाओ, जहाँ बिठाओ... यह वायदा है ना?

वा आँख को मैं चलाऊँगा बाकी को बाप चलायें?

कुछ मनमत पर चलेंगे, कुछ श्रीमत पर चलेंगे।

ऐसा वायदा तो नहीं है ना?

तो कोई भी कर्मेन्द्रिय के वशीभूत होना यह श्रीमत है वा मनमत है?

तो समझा, त्याग की परिभाषा कितनी गुह्य है!

इसलिए नम्बर बन गये हैं। ..."

 

...this link to be updated further about Baba's Mahavakya on this topic from other Avyakt Vaanis...