12.03.1972

"...दिन-प्रतिदिन अपने में परिवर्तन लाना है।

कोई के भी स्वभाव, संस्कार देखते हुये, जानते हुये उस तरफ बुद्धि-योग न जाये।

और ही उस आत्मा के प्रति शुभ भावना हो।

एक तरफ से सुना, दूसरे तरफ से निकाल दिया।

उसको बुद्धि में स्थान नहीं देना है।

तब ही एक तरफ बुद्धि स्थित हो सकती है।

कमजोर आत्मा की कमजोरी को न देखो।

यह स्मृति में रहे कि वैराइटी आत्माएं हैं।

आत्मिक दृष्टि रहे।

आत्मा के रूप में उनको स्मृति में लाने से पावर दे सकेंगे।

आत्मा बोल रही है।

आत्मा के यह संस्कार हैं।

यह पाठ पक्का करना है।

‘आत्मा’ शब्द स्मृति में आने से ही रूहानियत-शुभ भावना आ जाती है, पवित्र दृष्टि हो जाती है।

चाहे भले कोई गाली भी दे रहा है लेकिन यह स्मृति रहे कि यह आत्मा तमोगुणी पार्ट बजा रही है।

अपने आप का स्वयं टीचर बन ऐसी प्रैक्टिस करनी है।

यह पाठ पक्का करने लिये दूसरों से मदद नहीं मिल सकती।

अपने पुरूषार्थ की ही मदद है। ..."

 

 

 

09.11.1969

"...पतित दुनिया में रहते हुए बाप पवित्र बनने की शक्ति देते है।

पुरुषार्थ करके तुमको सदा पवित्र बनना है।..."

 

 

 

17.11.1969

"...सर्वदा सुख, शान्ति और पवित्रता का जन्म सिद्ध अधिकार कहते हो ना।

अपने आप से पूछो कि बच्चा बना और पवित्रता, सुख, शान्ति का अधिकार प्राप्त किया।

अगर अधिकार छूट जाता है तो कोई बात के अधीन बन जाते हो।

तो अब अधीनता को छोडो, अपने जन्म सिद्ध अधिकार को प्राप्त करो। ..."

 

 

 

 

21.01.1971

"...जैसे पवित्रता की बात लोगों को मुश्किल लगती है परन्तु जो कल्प पहले वाले होंगे, अधिकारी वह तो समझते हैं कि हमारा स्वधर्म ही है।

उनको सहज लगेगा। ..."

 

 

 

 

11.03.1971

"...कुमारों का सदा प्योर और सतोगुणी रहने का यादगार कौनसा है, मालूम है?

सनंतकुमार।

उन्हों की विशेषता क्या दिखाते हैं?

उन्हों को सदैव छोटा कुमार रूप ही दिखाते हैं।

कहते हैं - उन्हों की सदैव 5 वर्ष की आयु रहती है।

यह प्योरिटी का गायन है।

जैसे 5 वर्ष का छोटा बच्चा बिल्कुल प्योर रहता है ना।

सम्बन्धों के आकर्षण से दूर रहता है।

भल कितना भी लौकिक परिवार हो लेकिन स्थिति ऐसी हो जैसे छोटा बच्चा प्योर होता है।

वैसे ही प्योरिटी का यह यादगार है।

कुमार अर्थात् पवित्र अवस्था।

उसमें भी सिर्फ एक नहीं, संगठन दिखलाया है।

दृष्टान्त में तो थोड़े ही दिखाये जाते हैं।

तो यह आप लोगों का संगठन प्योरीटी का यादगार है।

ऐसी प्योरिटी होती है जिसमें अपवित्रता का संकल्प वा अनुभव ही नहीं हो।..."

 

 

 

 

22.06.1971

"... निरन्तर याद में रहो और मन, वाणी, कर्म में प्योरिटी हो।

औरों को भी सुनाते हो कि पवित्र बनो, योगी बनो।

तो जो औरों को सुनाते हो वही मुख्य फरमान हुआ ना।

संकल्प में भी अपवित्रता वा अशुद्धता न हो - इसको कहते हैं सम्पूर्ण पवित्र। ऐसे फरमानबरदान बने हो ना।

सारी शक्ति-सेना पवित्र और योगी है कि अभी बनना है?

निरन्तर योगी भी हैं।

निरन्तर अर्थात् संकल्प में भी अशुद्धता नहीं है।

संकल्प में भी अगर पुराने अशुद्ध संस्कारों का टच होता है तो भी सम्पूर्ण प्योरिटी तो नहीं कहेंगे ना।

जैसे स्थूल भोजन भले कोई स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन हाथ भी लगाते हैं तो भी अपने को सच्चे वैष्णव नहीं समझते हैं।

अगर बुद्धि द्वारा भी अशुद्ध संकल्प वा पुराने संस्कार संकल्प रूप में टच होते हैं तो भी सम्पूर्ण वैष्णव कहेंगे?

कहा जाता है - अगर कोई देखता भी है अकर्त्तव्य कार्य, तो देखने का असर हो जाता है, उसका भी हिसाब बन जाता है।

इस हिसाब से सोचो तो पुराने संस्कार व अशुद्ध संकल्प बुद्धि में भी टच होते हैं, तो भी सम्पूर्ण वैष्णव वा सम्पूर्ण प्योरिटी नहीं कहेंगे।..."

 

 

 

 

20.08.1971

"...सारा दिन पुरूषार्थ योगी और पवित्र बनने का करते हो ना।

जब तक पूरी रीति आत्म- अभिमानी न बने हैं।

तो निर्विकारी भी नहीं बन सकते।

तो निर्विकारीपन का निशाना और निराकारीपन का निशाना, जिसको फरिश्ता कहो, कर्मातीत स्टेज कहो।

लेकिन फरिश्ता भी तब बनेंगे जब कोई भी इमप्योरिटी अर्थात् पांच तत्वों की आकर्षण आकर्षित नहीं करेगी।

ज़रा भी मन्सा संकल्प भी इमप्योअर अर्थात् अपवित्रता का न हो, तब फरिश्तेपन की निशानी में टिक सकेंगे।..."

 

 

 

 

25.08.1971

"...जैसे साप्ताहिक पाठ करते हैं ना।

आप लोग भी सर्विस में ‘पवित्रता सप्ताह’ वा ‘शान्ति सप्ताह’ का प्रोग्राम रखते हो ना।

वैसे ही अपनी प्रोग्रेस के लिए हर पाठ का साप्ताहिक पाठ प्रैक्टिकल और प्रैक्टिस में लाओ।

तो रिवाइज होने से क्या होगा?

सफलता समीप, सहज और स्पष्ट दिखाई देगी।..."

 

 

 

"...सजावट, फीचर्स और नेचर्स की ब्यूटी मूर्तियों में भी है, फिर भी वृत्ति और दृष्टि चंचल क्यों नहीं होती?

दोनों ही चित्र सामने रखो वा एक ही कमरे में रखो तो एक सेकेण्ड में उस तरफ जाने से वृत्ति चंचल होती है और उस तरफ जाने से वृत्ति पवित्र बन जाती है।

यह पवित्रता और अपवित्रता का कारण क्या होता है? स्मृति।

स्मृति है कि यह देवी है; तो यह स्मृति दृष्टि और वृत्ति को पवित्र बनाती है।

और स्मृति है कि यह फीमेल है; तो वह स्मृति वृत्ति और दृष्टि अपवित्रता की तरफ खैंचती है।

वहाँ रूप को देखेंगे और वहाँ रूहानियत को देखेंगे। ..."

 

 

 

"...यह पवित्रता और अपवित्रता का कारण क्या होता है?

स्मृति।

स्मृति है कि यह देवी है; तो यह स्मृति दृष्टि और वृत्ति को पवित्र बनाती है।

और स्मृति है कि यह फीमेल है; तो वह स्मृति वृत्ति और दृष्टि अपवित्रता की तरफ खैंचती है।

वहाँ रूप को देखेंगे और वहाँ रूहानियत को देखेंगे। ऐसा पास्ट का अनुभव तो होगा ना।

वर्तमान भी परसेन्टेज में है।

लेकिन इसको मिटाने के लिए कभी भी कहाँ भी देखते हो, किससे भी बोलते हो तो स्मृति में क्या रखो?

आत्मा समझना, वह तो हुई फर्स्ट स्टेज।

लेकिन कर्म में आते, सम्पर्क में आते, सम्बन्ध में आते यही स्मृति रखो कि यह सभी जड़ चित्रों की चैतन्य देवी वा देवताओं के रूप हैं।

तो देवी का रूप स्मृति में आने से जैसे जड़ चित्रों में कभी संकल्प मात्र भी अपवित्रता वा देह का अट्रेक्शन नहीं होता है, ऐसे ही चैतन्य रूप में भी यह स्मृति रखने से संकल्प में भी यह कम्पलेन नहीं रहेगी और कम्पलीट हो जायेंगे।

समझा?

यह हैं वर्तमान पुरूषार्थियों की कम्पलेन के ऊपर कम्पलीट बनने की युक्तियां।..."

 

 

 

 

26.10.1971

"...स्मृति अर्थात् वृत्ति बदलने से कर्म भी बदल जाता है।

कर्म का आधार वृत्ति है।

प्रवृत्ति वृत्ति से ही पवित्र, अपवित्र बनती है।

इसलिए पाण्डव सेना वृत्ति को सदा एक बाप के साथ लगाते रहें तो वृत्ति से अपनी उन्नति में वृद्धि कर सकते हो।

वृद्धि का कारण वृत्ति है।

वृत्ति में क्या करना है?

अगर वृत्ति ऊंची है तो प्रवृत्ति ऊंची रहेगी।

तो वृत्ति में क्या रखें जिससे सहज वृद्धि हो जाए?

वृत्ति में सदा यही याद रहे कि ‘एक बाप दूसरा न कोई।’

एक ही बाप से सर्व सम्बन्ध, सर्व प्राप्ति होती हैं।

यह सदा वृत्ति में रहने से दृष्टि में आत्मिक-स्वरूप अर्थात् भाई-भाई की दृष्टि सदा रहेगी।

जब एक बाप से सर्व सम्बन्ध की प्राप्ति की विस्मृति होती है तब ही वृत्ति चंचल होती है।

जब एक बाप के सिवाय दूसरा कोई सम्बन्ध ही नहीं, तो वृत्ति चंचल क्यों होगी।

ऊंची वृत्ति होने से चंचल वृत्ति हो नहीं सकती।

वृत्ति को श्रेष्ठ बना दो तो प्रवृत्ति आटोमेटिकली श्रेष्ठ होगी।

इसलिए अपनी वृत्ति को श्रेष्ठ बनाओ तो यही प्रवृत्ति प्रगति का कारण बन जायेगी और प्रगति से गति-सद्गति को सहज ही पा सकेंगे, फिर यह प्रवृत्ति गिरने का कारण नहीं होगी, तो प्रवृत्ति मार्ग में रहने वालों को प्रगति के लिए वृत्ति को ठीक करना है।

फिर यह वृत्ति के चंचलता की कम्पलेन कम्पलीट हो जायेगी।

स्मृति वा वृत्ति में सदा अपना निर्वाण धाम और निर्वाण स्थिति रहनी चाहिए और चरित्र में निर्मान।..."

 

 

 

 

08.01.1979

"...पवित्रता जन्म संस्कार बनी है?

जैसे कोई के क्रोध के संस्कार जन्म से होते हैं तो कहते हैं चाहते नहीं हैं, मेरे जन्म के संस्कार हैं, ऐसे यह जन्म के संस्कार स्वत:ही कार्य करते हैं।

कभी स्वप्न में भी अपवित्रता के संकल्प नहीं आए इसको कहा जाता है प्यूरिटी की परसनाल्टी वाले।

इस परसनाल्टी के कारण ही विश्व की आत्माएं आज तक नमस्कार कर रही हैं।

महान आत्माओं को न जानते भी नमस्कार करते हैं, साधारण को नहीं, तो ऐसे महान हो ना।..."