01 - 23.07.1969 "... एक-एक की प्रजा प्रख्यात होगी। जब प्रजा प्रख्यात होगी तब पद भी प्रख्यात होगा, हर एक की प्रजा और भक्त प्रख्यात होंगे।
भविष्य पद के पहले संगम की सर्विस में सफलता स्वरूप का यादगार प्रख्यात होगा। भविष्य पद प्रख्यात होगा।
ऐसा समय आने वाला है जो कि आप अपनी कमाई नहीं कर सकोगे परन्तु दूसरों के लिये बहुत बिजी हो जाओगे।
अभी अपनी कमाई का बहुत थोड़ा समय है। फिर दूसरों की सर्विस करने में अपनी कमाई होगी।
अभी यह जो थोड़ा समय मिला है उसका पूरा-पूरा लाभ उठाओ। नहीं तो फिर यह समय ही याद आयेगा इसलिए ही जैसे भी हो जहाँ पर भी हो, परिस्थितियां नहीं बदलेंगी।
यह नहीं सोचना कि मुसीबतें हल्की होंगी फिर कमाई करेंगे, यह तो दिन प्रति दिन और विशाल रूप धारण करेंगी परन्तु इनमें रहते हुए भी अपनी स्थिति की परिपक्वता चाहिए। ..."
02 - 23.07.1969 "...नम्रचित्त का तख्त। जिस पर ही विराजमान होने से सारे काम ठीक कर सकेंगे।
शक्ति सेना को तो एक रस का तख्त दिया था। और पाण्डव सेना को निर्माणचित्त का दिया था। उस पर बैठ और जिम्मेवारी का ताज धारण कर भविष्य की पदवी बनाओ।
तख्त से उतरना नहीं इसी पर बैठकर काम करोगे तो कार्य सफल होगा।..."
03 - 20.10.1969 "...जितना- जितना परिपक्व रहेंगे उतना पद पा सकेंगे। हरेक यही सोचे कि हम ही नम्बर वन है।
अगर हरेक नम्बर वन होंगे तो नम्बर टू कौन आयेंगे? बाप की क्लास में कभी भी नम्बर नहीं निकल सकते।
टीचर भी नम्बर वन स्टूडेन्ट भी नम्बरवन। तो एक-एक नम्बरवन।..."
04 - 25.10.1969 "...अब तक अगर ऐसे ही करते चलेंगे तो अन्त तक भी क्या कोशिश करते रहेंगे?
ऐसे पुरुषार्थी को झाटकू कहेंगे? देवियों पर बलि चढ़ते है तो शक्तियाँ वा देवियाँ भी बिगर झाटकू स्वीकार नहीं करती हैं
तो क्या बाप-दादा ऐसे को स्वीकार कर सकता है। अगर यहाँ स्वीकार न किया तो स्वर्ग में ऊँच पद की स्वीकृति नहीं मिलेगी। ..."
05 - 09.11.1969 "...साथी को साथ रखना है। नहीं तो साक्षी बन जायेंगे। साक्षी अच्छा लगता है या साथी?
जो मेहनत करते है उसका फल भी यहाँ ही मिलता है। यह स्नेह और भविष्य पद मिलता है।..."
06 - 25.12.1969 "...अब तक जो प्रैक्टिकल में है उस हिसाब से कौन से राजे गिने जायेंगे?
अभी के सर्विस के साक्षात्कार प्रमाण कौन से राजे बनेंगे?
पुरुषार्थ से पद तो स्पष्ट हो ही जाता है। भल सूर्यवंशी तो हैं लेकिन एक होते है विश्व के राजे, तो विश्व महाराजन् के साथ अपने राज्य के राजे भी होते है।
अब बताओ आप कौनसे राजे हो? शुरू में कौन आयेंगे? विश्व के महाराजन् बनना और विश्व महाराजन् के नजदीक सम्बन्धी बनना इसके लिए कौनसा साधन होता है?
विश्व का कल्याण तो हो ही जायेगा। लेकिन विश्व के महाराजन् जो बनने वाले है, उन्हीं की अभी निशानी क्या होगी?
यह भी ब्राह्मणों का विश्व है अर्थात् छोटा सा संसार है तो जो विश्व महाराजन् बनने है उन्हों का इस विश्व अर्थात् ब्राह्मणकुल की हर आत्मा के साथ सम्बन्ध होगा।
जो यहाँ इस छोटे से परिवार, सर्व के सम्बन्ध में आयेंगे वह वहाँ विश्व के महाराजन बनेंगे।
अब बताओ कौन से राजे बनेंगे? एक होते हैं जो स्वयं तख्त पर बैठेंगे और एक फिर ऐसे भी है जो तख्त नशीन बनने वालों के नजदीक सहयोगी होंगे।
नजदीक सहयोगी भी होना है, तो उसके लिये भी अब क्या करना पड़ेगा?
जो पूरा दैवी परिवार है, उन सर्व आत्माओं के किसी न किसी प्रकार से सहयोगी बनना पड़ेगा।
एक होता है सारे कुल के सर्विस के निमित्त बनना। और दूसरा होता है सिर्फ निमित्त बनना।
लेकिन किसी न किसी प्रकार से सर्व के सहयोगी बनना। ऐसे ही फिर वहाँ उनके नजदीक के सहयोगी होंगे।
तो अब अपने आप को देखो। विश्व महाराजन् बनेंगे ना? नम्बरवार विश्व महाराजन् कौनसे बनते हैं, वह भी दिन-प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते जायेंगे।..."
07/22.01.1970 "...अगर फस्ट का लक्ष्य रखेंगे तो पुरुषार्थ भी ऐसे ही होगा। इसलिए कभी भी यह नहीं सोचना कि हम लोग तो पीछे आये हैं तो प्रजा बन जायेंगे। नहीं।
पीछे आनेवालों को भी अधिकार है राज्य पद पाने का।..."
08 - 22.01.1970 "...सभी को यही निश्चय रखना है कि हम राज्य पद लेकर ही छोड़ेंगे। हम नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे।
कोटों में कोई कौन-सी आत्मा गिनी जाती हैं? ऐसे कोटों में से कोई हम आत्माएं ड्रामा के अन्दर हैं। ..."
09 - 23.01.1970 "...उंच पद किसको समझते हो? लक्ष्मी-नारायण बनेंगे? जैसा लक्ष्य रखा जाता है तो लक्ष्य के साथ फिर और क्या धारणा करनी पड़ती है?
लक्षण अर्थात् दैवी गुण। लक्ष्य जो इतना उंच रखा है तो इतने उंच लक्षण का भी ध्यान रखना है। ..."
10 - 24.01.1970 "...सभी ने यह लक्ष्य रखा है कि हम सभी ऊँचे ते ऊँचे बाप के बच्चे ऊँचे ते ऊँचा राज्य पद प्राप्त करेंगे वा जो मिलेगा वही ठीक है?
जब ऊँचे से ऊँचे बाप के बच्चे हैं तो लक्ष्य भी ऊँचा रखना है।
जब अविनाशी आत्मिक स्थिति में रहेंगे तब ही अविनाशी सुख की प्राप्ति होगी। आत्मा अविनाशी है ना। ..."
11 - 24.01.1970 "...लक्ष्य सम्पूर्ण है तो पुरुषार्थ भी सम्पूर्ण करना है, तब ही सम्पूर्ण पद मिल सकता। सम्पूर्ण पुरुषार्थ अर्थात् सभी बातों में अपने को संपन्न बनाना। ..."
12 - 24.01.1970 "...श्रेष्ठ कर्म करने से ही श्रेष्ठ पद मिल सकता है और श्रेष्ठाचारी भी बन जाते हैं।
एक ही श्रेष्ठ कर्म से वर्तमान भी बन जाता है और भविष्य भी बनता।
जिससे दोनों ही श्रेष्ठ बन जायें वह कर्म करना चाहिए। ..."
13 - 24.01.1970 "...जब अव्यक्त स्थिति की स्टेज सम्पूर्ण होगी तब ही अपने राज्य में साथ चलना होगा।
एक आँख में अव्यक्त सम्पूर्ण स्थिति दूसरी आँख में राज्य पद।
ऐसे ही स्पष्ट देखने में आएंगे जैसे साकार रूप में दिखाई पड़ता है।
बचपन रूप भी और सम्पूर्ण रूप भी। बस यह बनकर फिर यह बनेंगे। यह स्मृति रहती है।
भविष्य की रुपरेखा भी जैसे सम्पूर्ण देखने में आती है। जितना-जितना फ़रिश्ते लाइफ के नज़दीक होंगे उतना-उतना राजपद को भी सामने देखेंगे। ..."
14 - 23.03.1970 "...जो सर्व त्यागी होते हैं, वही सर्व के स्नेही और सहयोगी बनते हैं।
ऐसे श्रेष्ठ संकल्प वाले श्रेष्ठ पद के अधिकारी बनते हैं। संकल्प में भी सर्व के कल्याण की भावना हो।..."
15 - 02.07.1970 "...जैसे बापदादा विश्व के स्नेही सहयोगी बने वैसे बच्चों को भी फॉलो फादर करना है।
तब विश्व महाराजन की जो पदवी है उसमें आने के अधिकारी बन सकते हो। हिसाब है ना। जैसा और जितना, वैसा और उतना मिलता है। अब प्रतिज्ञा करके विशेष प्रत्यक्ष होना है।..."
16 - 11.07.1970 "...इस संगम पर आपको क्या मिलेगा? सम्पूर्ण फ़रिश्ता वा अव्यक्त फ़रिश्ता। यह है संगमयुग की डिग्री।
और दैवीपद है भविष्य की प्रालब्ध। तो अब की डिग्री है सम्पूर्ण अव्यक्त फ़रिश्ता। इस डिग्री की मुख्य क्वालिफिकेशन कौन-कौन सी हैं और कहाँ तक हरेक स्टूडेंट इसमें क्वालिफाइड बना है। यह देख रहे हैं।
जितना क्वालिफाइड होगा उतना ही औरों को भी क्वालिफाइड बनाएगा। क्वालिफाइड जो होगा वही बनाएगा क्वालिटी। और जो नहीं होगा वह बनाएगा क्वांटिटी। ..."
17 - 27.07.1970 "...योग की अग्नि सदैव जली रहे इसलिए मन-वाणी-कर्म और सम्बन्ध, यह चारों बातों की रखवाली करना पड़े। फिर यह अग्नि अविनाशी रहेगी। बार-बार बुझायेंगे और जलायेंगे तो टाइम वेस्ट हो जायेगा और पद भी कम होगा।
जितना स्नेह है उतनी शक्ति भी रखो। एक सेकण्ड में आकारी और एक सेकण्ड में साकारी बन सकते हो? यह भी आवश्यक सर्विस है। ..."
18 - 06.08.1970 "...जितना बन्धनमुक्त उतना ही योगयुक्त होंगे और जितना योगयुक्त होंगे उतना ही जीवनमुक्त में उंच पद की प्राप्ति होती है।
अगर बन्धनमुक्त नहीं तो योगयुक्त भी नहीं।
उसको मास्टर सर्वशक्तिमान कहेंगे? देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थों से लगाव मिटाना सरल है लेकिन देह के भान से मुक्त हो जाना।
जब चाहें तब व्यक्त में आयें। ऐसी प्रैक्टिस अभी जोर शोर से करनी है।
ऐसे ही समझें जैसे अब बाप आधार ले बोल रहे हैं वैसे ही हम भी देह का आधार लेकर कर्म कर रहे हैं।
इस न्यारेपन की अवस्था प्रमाण ही प्यारा बनना है। जितना इस न्यारेपन की प्रैक्टिस में आगे होंगे उतना ही विश्व को प्यारे लगने में आगे होंगे।..."
19 - 03.12.1970 "...अपने आपको साक्षात्कार मूर्त समझने से कभी भी हार नहीं खायेंगे। अभी प्रतिज्ञा का समय है न कि हार खाने का।
अगर बार-बार हार खाते रहते हैं तो उसका भविष्य भी क्या होगा? ऊँचे-ऊँचे पद तो नहीं पा सकते।
बार-बार हार खाने वाले को देवताओं के हार बनाने वाले बनना पड़ेगा। जितना ही बार-बार हार खाते रहेंगे उतना ही बार-बार हार बनानी पड़ेगी रत्नजड़ित हार बनते हैं ना।
और फिर द्वापर से भी जब भक्त बनेंगे तो अनेकों मूर्तियों को बार-बार हार पहनना पड़ेगा। इसलिए हार नहीं खाना। ..."
20 - 31.12.1970 "...सदा यह परिवर्तन संकल्प चाहिए कि मैं साधारण स्टूडेन्ट नहीं, साधारण पढ़ाई नहीं लेकिन डायरेक्ट बाप रोज दूरदेश से हमको पढ़ाने आते हैं।
भगवान के वर्शन्स हमारी पढ़ाई है।
श्री-श्री की श्रीमत हमारी पढ़ाई है।
जिस पढ़ाई का हर बोल पद्मों की कमाई जमा कराने वाला है।
अगर एक बोल भी धारण नहीं किया तो बोल मिस नहीं किया लेकिन पद्मों की कमाई अनेक जन्मों की श्रेष्ठ प्रालब्ध वा श्रेष्ठ पद की प्राप्ति में कमी की।
ऐसा परिवर्तन संकल्प ‘भगवान् बोल रहे हैं’, हम सुन रहे हैं। मेरे लिये बाप टीचर बनकर आये हैं। मैं स्पेशल लाडला स्टूडेन्ट हूँ – इसलिए मेरे लिए आये हैं। कहाँ से आये हैं, कौन आये हैं, और क्या पढ़ा रहे हैं? यही परिवर्तन श्रेष्ठ संकल्प रोज़ क्लास के समय धारण कर पढ़ाई करो। ..."
21 - 29.04.1971 "...जैसे यूनिवार्सिटी का सर्टिफिकेट सर्विस दिलाता है, पद की प्राप्ति कराता है।
ऐसे ही यह भट्ठी का तिलक वा छाप सदा अपने पास प्रैक्टिकल में कायम रखना - यह बड़े से बड़ा सर्टिफिकेट है।
जिसको सर्टिफिकेट नहीं होता है वह कभी भी कोई स्टेट्स नहीं पा सकते।
इस रीति से यह भी एक सर्टिफिकेट है। भविष्य वा वर्तमान पद की प्राप्ति वा सफलता का सर्टिफिकेट है।
सर्टिफिकेट को सदैव सम्भाला जाता है। ..."
22 - 29.06.1971 "...देव-पद की प्राप्ति तो भविष्य की है, लेकिन वर्तमान समय पुरूषार्थ की प्राप्ति का लक्ष्य कौनसा है? (फरिश्ता बनना)
फरिश्ते की मुख्य क्वालिफिकेशन क्या हैं? फरिश्ता बनने के लिए दो क्वालिफिकेशन कौनसी है? एक लाइट, दूसरी माइट चाहिए। दोनों ही जरूरी हैं।
लाइट और माइट - दोनों ही फरिश्तेपन की लाइफ में स्पष्ट दिखाई देते हैं। लाइट प्राप्त करने के लिए विशेष कौनसी शक्ति चाहिए?
शक्तियां तो बहुत हैं ना। लेकिन माइट रूप वा लाइट रूप बनने के लिए एक-एक अलग गुण बताओ। एक है मनन और दूसरी है सहन शक्ति।
जितनी सहन शक्ति होती है उतनी सर्वशक्तिमान की सर्व शक्तियां स्वत: प्राप्त होती हैं।
नॉलेज को भी लाइट कहते हैं ना। तो पुरूषार्थ के मार्ग को सहज और स्पष्ट करने के लिए भी नॉलेज की लाइट चाहिए।
इस लाइट के लिए फिर मनन शक्ति चाहिए।
तो एक मनन शक्ति और दूसरी सहन शक्ति चाहिए।
अगर यह दोनों ही शक्तियां हैं तो फरिश्ते स्वरूप का चलते-फिरते किसको भी साक्षात्कार हो सकता है। ..."
23 - 21.01.1972 "...यहाँ बैठे हुए भी अनेक आत्माओं को, जो भी आपके सतयुगी फैमिली में समीप आने वाले होंगे उन्हों को आप लोगों के फरिश्ते रूप और भविष्य राज्य-पद के - दोनों इकट्ठे साक्षात्कार होंगे।
जैसे शुरू में ब्रह्मा में सम्पूर्ण स्वरूप और श्रीकृष्ण का - दोनों साथ-साथ साक्षात्कार करते थे, ऐसे अब उन्हों को तुम्हारे डबल रूप का साक्षात्कार होगा।
जैसे-जैसे नंबरवार इस न्यारी स्टेज पर आते जायेंगे तो आप लोगों के भी यह डबल साक्षात्कार होंगे। अभी यह पूरी प्रैक्टिस हो जाए ..."
24 - 02.02.1972 "...सदा प्रीत बुद्धि रहने वाले विजयी रत्न बन सकेंगे। विजयी रत्न बनने के लिए अपने को सदा प्रीत बुद्धि बनाओ।
नहीं तो ऊंच पद पाने के बजाय कम पद पाने के अधिकारी बन जायेंगे।..."
25 - 04.03.1972 "...अगर कामन अर्थात् साधारण संकल्प किये तो प्राप्ति भी साधारण होगी। जैसे संकल्प वैसी सृष्टि बनेगी ना।
अगर संकल्प ही श्रेष्ठ न होंगे तो अपनी नई सृष्टि जो रचने वाले हैं उसमें पद भी साधारण ही मिलेगा।
इसलिए सदैव यह चेक करो - हमारा संकल्प जो उठा वह साधारण है वा श्रेष्ठ?
साधारण संकल्प वा चलन तो सर्व आत्मायें करती रहती हैं। अगर सर्वशक्तिवान की सन्तान होने के बाद भी साधारण संकल्प वा कर्म हुए तो श्रेष्ठता वा विशेषता क्या हुई?
मैं विशेष आत्मा हूँ, इस कारण हमारा सभी कुछ विशेष होना चाहिए।
अपने परिवर्तन से आत्माओं को अपनी तरफ वा अपने बाप के तरफ आकर्षित कर सको
अपने देह के तरफ नहीं, अपनी अर्थात् आत्मा की रूहानियत तरफ।
तुम्हारा परिवर्तन सृष्टि को परिवर्तन में लायेगा।
सृष्टि का परिवर्तन भी श्रेष्ठ आत्माओं के परिवर्तन के लिए रूका हुआ है।
परिवर्तन तो लाना है। ना कि यह साधारण जीवन ही अच्छी लगती है?
यह स्मृति, वृति और दृष्टि अलौकिक हो जाती है तो इस लोक का कोई भी व्यक्ति वा कोई भी वस्तु आकर्षित नहीं कर सकती।
अगर आकर्षित करती है तो समझना चाहिए कि स्मृति में वा वृत्ति में वा दृष्टि में अलौकिकता की कमी है।
इस कमी को सेकेण्ड में परिवर्तन में लाना है।..."
26 - 15.03.1972 "...जो जितना त्याग करता है और जिस घड़ी त्याग करता है, उसी घड़ी जितना त्याग उनके रिटर्न में उनको भाग्य ज़रूर प्राप्त होता है।
संगमयुग में त्याग वा प्रत्यक्षरूप में भाग्य क्या मिलता है, यह जानते हो?
अभी-अभी भाग्य क्या मिलता है? सतयुग में तो मिलेगा जीवन-मुक्ति पद, अब क्या मिलता है?
आपको अपने त्याग का भाग्य मिलता है? संगमयुग में त्याग का भाग्य बड़े ते बड़ा यही मिलता है कि स्वयं भाग्य बनाने वाला अपना बन जाता है। यह सबसे बड़ा भाग्य हुआ ना!
यह सिर्फ संगमयुग पर ही प्राप्त होता है जो स्वयं भगवान अपना बन जाता है। अगर त्याग नहीं तो बाप भी अपना नहीं।..."
27 - 15.03.1972 "...जो प्रवृत्ति में रहने वाले हैं, स्थूल धन से अपना पद ऊंच बना सकते हैं, वैसे ही यज्ञ-निवासी भी अगर यज्ञ की स्थूल वस्तु ‘‘कम खर्च बाला-नशीन’’ बनकर यूज करते हैं, अपने प्रति वा दूसरों के प्रति, उनका भी इस हिसाब से भविष्य बहुत ऊंच बनता है।
ऐसे नहीं कि स्थूल धन तो प्रवृत्ति वालों के लिए साधन है लेकिन यज्ञ- निवासियों के यज्ञ की सेवा भी, यज्ञ की वस्तु की एकानामी रूपी धन स्थूल धन से भी ज्यादा कमाई का साधन है।..."
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