Great Souls

09.11.1969

"...मधुरता को धारण करने वाला यहाँ भी महान् बनता है, और वहाँ भी मर्तबा पाता है।

मधुरता वालों को सभी महान रूप से देखते हैं। ..."

 

 

 

23.01.1970

"...त्याग से ही भाग्य बनता है।

लेकिन त्याग करने के बाद मनसा में भी संकल्प उत्पन्न नहीं होना चाहिए।

जब कोई बलि चढ़ता है तो उसमें अगर ज़रा भी चिल्लाया वा आँखों से बूँद निकली तो उनको देवी के आगे स्वीकार नहीं कराएँगे।

झाटकू सुना है ना।

एक धक् से कोई चीज़ को ख़त्म करने और बार बार काटने में फ़र्क रहता है ना।

झाटकू अर्थात् एक धक् से ख़त्म।

बापदादा के पास भी कौन से बच्चे स्वीकार होंगे?

जिनको मनसा में भी संकल्प न आये इसको कहा जाता है महाबली।

ऐसे महान बलि को ही महान बल की प्राप्ति होती है। ..."

 

 

 

 

26.01.1970

"...अंधों को आँखें देना कितना महान कार्य है।

आप सभी का यही कार्य है।

अज्ञानी अंधों को ज्ञान नेत्र देना। ..."

 

 

 

30.07.1970

"...वर्तमान समय संकल्प और कर्म साथ-साथ होना ही आवश्यक है।

अभी-अभी संकल्प किया अभी-अभी कर्म में लाया।

संकल्प और कर्म में महान अन्तर नहीं होना चाहिए।

महारथियों का अर्थ ही है महानता।

तो महानता सिर्फ संकल्प में नहीं सर्व में महानता।

यह है महारथियों की निशानी।..."

 

 

 

30.11.1970

"...वर्तमान पुरुषार्थ के प्रमाण मामूली बात भी महान गिनी जाती है।

समझा जैसे जितना बड़ा आदमी, जितना अधिक धनवान होता है, उतना छोटा-सा बुरा कर्म वा गलती का छोटा-सा एक पैसे का दण्ड भी उसके लिए बहुत बड़ा होता है।

तो इस रीति वर्तमान समय मामूली भी महान की लिस्ट में गिना जाता है।..."

 

 

 

15.04.1971

"...जैसे भक्ति मार्ग में जो-जो जिस प्रकार का दान करता है उसको उस प्रकार की प्राप्ति होती है।

ऐसे ही जो इस महान जीवन में जितना और जैसा दान करता है उतना और वैसा ही भविष्य बनता है।

न सिर्फ भविष्य लेकिन प्रत्यक्ष फल भी मिलता है। ..."

 

 

 

18.04.1971

"...अभी सिर्फ अपने को सर्व आत्माओं से महान् आत्मा समझते हो।

महान आत्मा बनकर हर संकल्प और हर कर्म करते हो?

समझना है लक्ष्य और करना वह है प्रैक्टिकल।

सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ महान आत्मा हूँ - इस स्मृति से किसके भी सामने जाओ तो क्या अनुभव करेंगे?

आपकी महानता के आगे सभी के सिर झुक जायेंगे। ..."

 

 

 


18.04.1971

"...महानता लाने के लिए ज्ञान की महीनता में जाना पड़े।

जितना-जितना ज्ञान की महीनता में जायेंगे उतना अपने को महान् बना सकेंगे।

महानता कम अर्थात् ज्ञान की महीनता का अनुभवी कम।

तो अपने को चेक करो।

महान् आत्मा का कर्त्तव्य क्या होता है -- वह स्मृति में रखो।

वैसे भी महान् आत्मा उसको कहते हैं जो महान कर्त्तव्य करके दिखाये।

अगर कोई साधारण कर्त्तव्य करे उनको महान् आत्मा नहीं कहेंगे।

तो महान् आत्माओं का कर्त्तव्य भी महान होना चाहिए।

सारे दिन की दिनचर्या में यह चेक करो कि महान् आत्मा होने के नाते से सारे दिन के अन्दर आज कौनसा महान् कर्त्तव्य किया?

महादानी बने?

वैसे भी महान् आत्माओं का कर्त्तव्य दान-पुण्य होता है।

तो यह सभी से महान् आत्मायें कहलाने वाले हैं।

तो आज सारे दिन में कितनों को दान दिया और कौनसा दान दिया?

जैसे महान् आत्माओं का भोजन, खान-पान आदि महान होता है, वैसे देखना है आज हमारी बुद्धि का भोजन महान रहा?

शुद्ध भोजन स्वीकार किया?

जैसे देखो, महान आत्मा कहलाने वाले अशुद्ध भोजन स्वीकार करते हैं तो उनको देखकर के सभी क्या कहते हैं?

कहेंगे यह महान् आत्मा है?

तो अपने को आप ही चेक करो कि आज हमने बुद्धि द्वारा कोई भी अशुद्ध संकल्प का भोजन तो नहीं पान किया?

महान आत्माओं का आहार-विहार यही तो देखा जाता है।

तो आज सारे दिन में बुद्धि का आहार कौनसा रहा?

अगर कोई अशुद्ध संकल्प वा विकल्प वा व्यर्थ संकल्प भी बुद्धि ने ग्रहण किया तो समझना चाहिए कि आज मेरे आहार में अशुद्धि रही।

जो महान आत्मा होते हैं उनके हर व्यवहार अर्थात् चलन से सर्व आत्माओं को सुख का दान देने का लक्ष्य होता है।

वह सुख देता और सुख लेता है।

तो ऐसे अपने आप को चेक करो कि महान आत्मा के हिसाब से आज के दिन कोई को भी दु:ख दिया वा लिया तो नहीं? ..."

 

 

 


18.04.1971

"...हिंसा अर्थात् जिससे दु:ख-अशान्ति की प्राप्ति हो।

लेकिन इससे शान्ति और सुख की वा कल्याण की प्राप्ति होती है, इसलिए इसको हिंसा नहीं कहते हैं।

तो डबल अहिंसक ठहरे।

तो महान् आत्माओं का यह जो लक्षण गाया हुआ है वह भी देखना है।

आज के सारे दिन में किसी भी प्रकार की हिंसा तो नहीं की?

अगर कोई शब्द द्वारा किसकी स्थिति को डगमग कर देते हैं तो यह भी हिंसा हुई।

जैसे तीर द्वारा किसको घायल करना हिंसा हुई ना।

इस प्रकार अगर कोई शब्द द्वारा कोई की ईश्वरीय स्थिति को डगमग अर्थात् घायल कर दिया तो यह हिंसा हुई ना।

असली सतोप्रधान संस्कार वा जो अपने ओरीजनल ईश्वरीय संस्कार आत्मा के हैं उनको दबाकर दूसरे संस्कारों को प्रैक्टिकल में लाते हैं तो मानो जैसे कि किसका गला दबाया जाता है तो वह हिंसा मानी जाती है।

तो अपने ओरीजनल अथवा सतोप्रधान स्थिति के संस्कारों को दबाना-- यह भी हिंसा है। ..."

 

 

 

18.04.1971

"...ऐसी महान् आत्मा बनो जो किसके भी सामने जाओ तो उसको साक्षात्कार हो।

फिर बताओ वह अपना सिर आप साक्षात्कारमूर्त्त के आगे दिखा सकेंगे?

झुक जायेंगे।

जब अभी यह सिर झुकायेंगे तब आपके जड़ चित्रों के आगे स्थूल सिर झुकायेंगे। ..."

 

 

"...महानता लाने के लिए ज्ञान की महीनता में जाना है।

जितना-जितना ज्ञान की महीनता में जायेंगे उतना अपने को महान् बना सकेंगे।

महानता कम अर्थात् ज्ञान की महीनता का अनुभवी कम।..."


30.05.1971

"...से राजपूत होते हैं, वह जब युद्ध के मैदान में जाते हैं तो भले कैसा भी कमज़ोर हो उनको अपने कुल की स्मृति दिलाते हैं।

राजपूत ऐसे-ऐसे होते हैं, ऐसे होकर गये हैं, ऐसे ऐसे करके गये हैं, ऐसे कुल के तुम हो - यह स्मृति दिलाने से उन्हों में समर्थी आती है।

सिर्फ कुल की महिमा सुनते-सुनते स्वयं भी ऐसे महान् बन जाते हैं।

इस रीति आप सूर्यवंशी हो, वो सूर्यवंशी राज्य करने वाले क्या थे?

कैसे राज्य किया और किस शक्ति के आधार पर से ऐसा राज्य किया?

वह स्मृति और साथ-साथ अब संगमयुग के ईश्वरीय कुल की स्मृति।

अगर यह दोनों ही स्मृति बुद्धि में आ जाती हैं तो फिर समर्थी आ जाती है।..."

 

18.07.1971

"...जो भी कर्म करते हो तो महान् अन्तर-शुद्ध और अशुद्ध, सत्य और असत्य, स्मृति और विस्मृति में क्या अन्तर है, व्यर्थ और समर्थ संकल्प में क्या अन्तर है, सब बात में अगर महान् अन्तर करते जाओ तो दूसरे तरफ बुद्धि आटोमेटिकली कन्ट्रोल हो जायेगी।

और विल-पावर के लिए है महामन्त्र-अगर महान् अन्तर और महामन्त्र यह दोनों ही याद रहें तो कभी बुद्धि को कन्ट्रोल करने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। ..."

 

 


"...महामन्त्र और महान् अन्तर-यह दोनों ही याद रहे तो दोनों पावरस सहज आ सकती हैं।

महामन्त्र और महान अन्तर- दोनों स्मृति में रख फिर ज्ञान का नेत्र चलाने से देखो सफलता कितनी होती है।

जैसे सुनाया था ना-हंस का कर्त्तव्य क्या होता है।

वह सदैव कंकड़ और रत्नों का महान् अन्तर करता है।

तो ऐसे ही बुद्धि में सदैव महान् अन्तर याद रहे तो महामन्त्र भी सहज याद आ जायेगा।..."

 

 

19.07.1971

"...साधारणता में महानता हो।

जैसे बाप साकार सृष्टि में सिम्पल रहते हुए आप सभी के आगे

सैम्पल बने ना।

अति साधारणता ही अति महानता को प्रसिद्ध करती है ..."

 

 

"...जैसे देखो, गाँधी को सिम्पल कहते थे, लेकिन सिम्पल बनकर के एक सैम्पल बन कर तो दिखाया ना।

उसकी सिम्पल एक्टिविटी ही महानता की निशानी थी।

वह हो गया हद का एक्ट।

लेकिन यहाँ है बेहद के बाप के बच्चे बन बेहद की एक्ट करना।

तुम तो विश्व के निमित्त हो ना।

जैसे विश्व बेहद का है, बाप बेहद का है, वैसे ही जो भी एक्ट करते हो वह बेहद की स्थिति में स्थित होकर एक्ट करना है।

वह एक्ट ही अपने तरफ अट्रेक्ट करता है।

तो आकर्षण-मूर्त बनने के लिए क्या करना पड़े?

सिम्पल बनना पड़े।..."

 

28.07.1971

"...सभी कुछ जो लेना था वह ले लिया।

बाकी रह गया देना।

जितना-जितना देने में बिज़ी होंगे, तो यह बातें जिसको क्रास करना मुश्किल लगता है, वह बहुत सहज हो जायेंगी।

क्योंकि महादानी बनने से महान् शक्ति की प्राप्ति स्वत: होती है। ..."

 

 

 

 

25.08.1971

"...अपने आप को हर संकल्प वा कर्म में महान् बनाने के लिए सभी से सहज युक्ति की तीन बातें सुनाओ।

मन, वचन, कर्म में महानता के लिए ही पूछ रहे हैं।

महान् बनने के लिए एक तो अपने को पुरानी दुनिया में मेहमान समझो।

दूसरी बात - जो भी संकल्प वा कर्म करते हो, तो महान् अन्तर को बुद्धि में रख संकल्प और कर्म करो।

तीसरी बात कि बाप के वा अपने दैवी परिवार की हर आत्मा के गुण और श्रेष्ठ कर्त्तव्य की महिमा करते रहो।

1. मेहमान, 2. महान् अन्तर और 3. महिमा।..."

 

 


09.10.1971

"...एक ही स्टेज पर दोनों प्रकार की आत्मायें इकट्ठी विराज़मान हों तो जनता को महान् अन्तर दिखाई दे।

साक्षी होकर देखो तो महान् अन्तर दिखाई देता है?

जैसे कोई बहुत पावरफुल चीज़ होती है तो दूसरी चीज़ों का इफेक्ट उसके ऊपर नहीं होता है।

यहाँ भी अगर स्थूल स्टेज पर अपनी सूक्ष्म पावरफुल स्टेज है; तो दूसरे भले कितना भी पावरफुल बोलें लेकिन वायुमण्डल में उनका प्रभाव नहीं पड़ सकता।

जैसे यादगार रूप में दिखाते हैं - स्थूल युद्ध का रूप, एक तरफ तीर आया और रास्ते में उसको कट दिया।

तीर निकला और वहाँ ही खत्म कर दिया।

यह वृत्ति से ही वायुमण्डल को पावरफुल बना सकते हो।..."

 

 

 

 

02.04.1972

"...मैं आत्मा महान् आत्मा हूँ, दूसरा मैं आत्मा अब इस पुरानी सृष्टि में वा इस पुराने शरीर में मेहमान हूँ।

तो महान् और मेहमान - इन दोनों स्मृति में रहने से स्वत: और सहज ही जो भी कमजोरियां वा लगाव के कारण उपराम स्थिति न रह आकर्षण में आ जाते हैं वह आकर्षण समाप्त हो उपराम हो जायेंगे।

महान् समझने से जो साधारण कर्म वा साधारण संकल्प वा संस्कारों के वश चलते हैं वह सभी अपने को महान् आत्मा समझने से परिवर्तित हो जाते हैं।

स्मृति महान् की होने कारण संस्कार वा संकल्प वा बोल वा कर्म सभी चेन्ज हो जाते हैं।

इसलिए सदैव महान् और मेहमान समझकर चलने से वर्तमान में और भविष्य में और फिर भक्ति-मार्ग में भी महिमा योग्य बन जायेंगे।

अगर मेहमान वा महान् नहीं समझते तो महिमा योग्य भी नहीं बन सकते।

महिमा सिर्फ भक्ति में नहीं होती लेकिन सारा कल्प किस-न-किस रूप में महिमा योग्य बनते हो।

सतयुग में जो महान् अर्थात् विश्व के महाराजन वा महारानी बनते हैं, तो प्रजा द्वारा महिमा के योग्य बनते हैं।

भक्ति-मार्ग में देवी वा देवता के रूप में महिमा योग्य बनते हैं और संगमयुग में जो महान् कर्त्तव्य करके दिखलाते हैं, तो ब्राह्मण परिवार द्वारा भी और अन्य आत्माओं द्वारा भी महिमा के योग्य बनते हैं। तो सिर्फ इस समय मेहमान और महान् आत्मा समझने से सारे कल्प के लिए अपने को महिमा योग्य बना सकते हो।

हर कर्म और संकल्प को चेक करो कि महान् है अथवा मेहमान बनकर के चल रहे हैं वा कार्य कर रहे हैं? ..."

 


"...अपने को मेहमान समझकर चलने से हर कर्म महान् स्वत: ही होगा।..."

 

 

 

 

09.05.1972

"...जैसे महान् आत्मा जो बनते हैं वह कभी भी किसी के आगे झुकते नहीं हैं।

उनके आगे सभी झुकते हैं तब उसको महान आत्मा कहा जाता है।

जो आजकल के ऐसे ऐसे महान् आत्माओं से भी महान्, श्रेष्ठ आत्मायें, जो बाप की चुनी हुई आत्मायें हैं, विश्व के राज्य के अधिकारी हैं, बाप के वर्से के अधिकारी हैं, विश्व-कल्याणकारी हैं - ऐसी आत्मायें कहां भी, कोई भी परिस्थिति में वा माया के भिन्न-भिन्न आकर्षण करने वाले रूपों में क्या अपने आप को झुका सकते हैं?

आजकल के कहलाने वाले महात्माओं ने तो आप महान् आत्माओं की कॉपी की है।

तो ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें कहां भी, किसी रीति झुक नहीं सकतीं।

वे झुकाने वाले हैं, न कि झुकने वाले।

कैसा भी माया का फोर्स हो लेकिन झुक नहीं सकते।

ऐसे माया को सदा झुकाने वाले बने हो कि कहां-कहां झुक करके भी देखते हो?

जब अभी से ही सदा झुकाने की स्थिति में स्थित रहेंगे, ऐसे श्रेष्ठ संस्कार अपने में भरेंगे तब तो ऐसे हाइएस्ट पद को प्राप्त करेंगे जो सतयुग में प्रजा स्वमान से झुकेगी और द्वापर में भिखारी हो झुकेंगे।

आप लोगों के यादगारों के आगे भक्त भी झुकते रहते हैं ना।

अगर यहां अभी माया के आगे झुकने के संस्कार समाप्त न किये, थोड़े भी झुकने के संस्कार रह गये तो फिर झुकने वाले झुकते रहेंगे और झुकाने वालों के आगे सदैव झुकते रहेंगे। ..."

 

 

 


16.06.1972

"...अपने जन्म और समय के महत्व को जानो तब ही महान् कर्त्तव्य करेंगे। ..."

 

 

 

21.06.1972

"...यह है रचयिता की शक्ति, वह है रचना की शक्ति।

तो कमजोर शूरवीर के ऊपर वार करने की हिम्मत रख सकता है क्या?

रखे भी तो उसका परिणाम क्या होगा?

विजयी कौन बनेगा?

शूरवीर।

तो रचयिता की शक्ति महान् है, फिर माया का वार कैसे हो सकता वा माया से हार कैसे हो सकती?

जब अपने को शक्तिशाली नहीं समझते हो वा सदाकाल शक्तिशाली स्थिति में, स्मृति में स्थित नहीं होते तब हार होती है।

जहां स्मृति है वहां विस्मृति का आना असम्भव है।

जैसे दिन के समय रात का होना असम्भव है। ..."

 

 


11.07.1972

"...जैसे संगमयुग का हर सेकेण्ड का मेला है, वैसे हर समय अपने आप को बाप के साथ मिलन मनाने का अनुभव करते हो?

वा इस महान श्रेष्ठ मेले में चलते-चलते कब-कब बापदादा का हाथ छोड़ मेले वा मिलन मनाने से वंचित हो जाते हो?

जैसे कब-कब मेले में कई बच्चे खो जाते हैं ना।

माँ-बाप का हाथ छोड़ देते।

मेला होता है खुशी मनाने के लिये।

अगर मेले में कोई बच्चा मॉं-बाप से बिछुड़ जाये वा हाथ-साथ छोड़ दे तो उसको क्या प्राप्ति होगी?

खुशी के बजाय और ही अशान्त हो जावेंगे।

तो ऐसे अपने आप को देखो कि मेले में सदा खुशी की प्राप्ति कर रहा हूँ, सदा मिलन में रहता हूँ?

जो सदा मिलन में रहेगा उसकी निशानी क्या होगी?

उनकी विशेषता क्या होगी?

अतीन्द्रिय सुख में रहने वाले वा सदा मिलन मनाने वाले की निशानी क्या होगी?

उनकी विशेषता क्या होंगी?

जो सदैव मिलन में मग्न होगा वह कब भी कोई विघ्न में नहीं होगा। मिलन विघ्न को हटा देता है। ..."

 

 

 

09.11.1972

"...जैसे भक्तों को कहते हो कि चाहना श्रेष्ठ है लेकिन शक्तिहीन होने कारण जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते हैं, ऐसे ही आप भी जो चाहते हो कि ऐसे श्रेष्ठ बनें, चाहना श्रेष्ठ और पुरूषार्थ कम, लक्ष्य अपने सन्तुष्टता के आधार से दूर दिखाई दे तो उसको क्या कहा जावेगा?

महान ज्ञानी?

अपने को सर्व- शक्तिवान् की सन्तान कहते हो लेकिन सन्तान होने के बाद भी अपने में शक्ति नहीं है?

मनुष्य जो चाहे सो कर सकता है, ऐसे समझते हो ना?

तो आप भी मास्टर सर्व-शक्तिवान् के नाते जो आप 3 वर्ष की बात सोचते हो वह अभी नहीं कर सकते हो?

अपनी वह अंतिम स्टेज अभी प्रैक्टिकल में नहीं ला सकते हो?

कि अंतिम है इसलिये अंत में हो जावेगी?

यह कब भी नहीं समझना कि अंतिम स्टेज का अर्थ यह है कि वह स्टेज अंत में ही आवेगी।

लेकिन अभी से उस सम्पूर्ण स्टेज को जब प्रैक्टिकल में लाते जावेंगे तब अंतिम स्टेज को अंत में पा सकेंगे।

अगर अभी से उस स्टेज को समीप नहीं लाते रहेंगे तो दूर ही रह जावेंगे, पा न सकेंगे। इसलिये अब पुरूषार्थ में जम्प लगाओ। ..."

 

 

 

22.11.1972

"...स्थान के महत्व को, संग के महत्व को, वायुमण्डल के महत्व को भी जानो तो एक सेकेण्ड में महान् बन जावेंगे।

कोई बड़ी बात नहीं। ..."