1969

मेहमान का किसके साथ भी लगाव नहीं होता है। हम इस शरीर में भी मेहमान हैं। इस पुरानी दुनिया में भी मेहमान है। जब शरीर में ही मेहमान हैं तो शरीर से भी क्या लगन रखें। सिर्फ थोड़े समय के लिए यह शरीर काम में लाना है। अन्त में सहज रीति शरीर के भान से मुक्त हो जाये यह है पास विद आनर की निशानी । लेकिन वह तब हो सकेगी जब अपना चोला टाइट नहीं होगा । अगर टाइटनेस होगी तो सहज मुक्त नहीं हो सकेंगे । टाइटनेस का अर्थ है कोई से लगाव । इसलिए अब यही सिर्फ एक बात चेक करो - ऐसा लूज़ चोला हुआ है जो एक सेकेण्ड में इस चोले को छोड़ सके।

 

1970

ज्यादा सोचना भी नहीं चाहिए | अनेक तरफ लगाव है, फिर माया की अग्नि भी लग जाती है | परन्तु लगाव नहीं होना चाहिए | फ़र्ज़ तो निभाना है लेकिन उसमे लगाव न हो | ऐसा पावरफुल रहना है जो औरों के आगे एग्जाम्पल हो | एक स्वभाव समर्पण, दूसरा देह अभिमान का समर्पण और तीसरा संबंधों का समर्पण। देह अर्थात् कर्मेन्द्रियों के लगाव का समर्पण। तीन चीज़े दर्पण में देख रहे हैं। जब स्वभाव समर्पण समारोह होगा तब सम्पूर्ण मूर्त्त का साक्षात्कार होगा। कहाँ भी लगाव न हो। अपने आप से भी लगाव नहीं लगाना है तो औरों की तो बात ही छोड़ो। अपने को ऐसा चेंज करो जो दूसरों पर प्रभाव पड़े । धक से चेंज करना है । एकदम न्यारे बनो तो औरों का लगाव भी खुद ही टूटता जायेगा । देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थों से लगाव मिटाना सरल है लेकिन देह के भान से मुक्त हो जाना। जब चाहें तब व्यक्त में आयें। ऐसी प्रैक्टिस अभी जोर शोर से करनी है। ऐसे ही समझें जैसे अब बाप आधार ले बोल रहे हैं वैसे ही हम भी देह का आधार लेकर कर्म कर रहे हैं। इस न्यारेपन की अवस्था प्रमाण ही प्यारा बनना है। जितना इस न्यारेपन की प्रैक्टिस में आगे होंगे उतना ही विश्व को प्यारे लगने में आगे होंगे।

 

1971

इस दुनिया की बातों से, सम्बन्ध से न्यारे बनेंगे तब दैवी परिवार के, बापदादा के और सारी दुनिया के प्यारे बनेंगे। वैसे भी कोई सम्बन्धियों से जब न्यारे हो जाते हैं, लौकिक रीति भी अलग हो जाते हैं तो न्यारे होने के बाद ज्यादा प्यारे होते हैं। और अगर उन्हों के साथ रहते हैं वा उन्हों के सम्बन्ध के लगाव में होते हैं तो इतने प्यारे नहीं होते हैं। वह हुआ लौकिक। लेकिन यहाँ न्यारा बनना है ज्ञान सहित। सिर्फ बाहर से न्यारा नहीं बनना है। मन का लगाव न हो। जितना-जितना न्यारा बनेंगे उतना- उतना प्यारा अवश्य बनेंगे। जब अपनी देह से भी न्यारे हो जाते हो तो वह न्यारेपन की अवस्था अपने आप को भी प्यारी लगती है - ऐसा अनुभव कब किया है? जब अपनी न्यारेपन की अवस्था अपने को भी प्यारी लगती है, तो लगाव से न्यारी अवस्था प्यारी नहीं लगेगी? जिस दिन देह में लगाव होता है, न्यारापन नहीं होता है तो अपने आप को भी प्यारे नहीं लगते हो, परेशान होते हो। ऐसे ही बाहर के लगाव से अगर न्यारे नहीं होते हैं तो प्यारे बनने के बजाय परेशान होते हैं। यह अनुभव तो सभी को होगा। सिर्फ ऐसे-ऐसे अनुभव सदाकाल नहीं बना सकते हो। जैसे कोई चीज अर्पण की जाती है तो फिर वह अर्पण की हुई चीज़ अपनी नहीं समझी जाती है। तो इस देह के भान को भी अर्पण करने से जब अपनापन मिट जाता है तो लगाव भी मिट जाता है। ऐसे समर्पण हुए हो? ऐसे समर्पण होने वालों की निशानी क्या रहेगी? एक तो सदा योगयुक्त और दूसरा सदा बन्धनमुक्त। कोई भी न्यारी चीज़ प्यारी ज़रूर होती है। इस संगठन में अगर कोई न्यारी चीज़ दिखाई दे तो सभी का लगाव और सभी का प्यार उस तरफ चला जायेगा। तो आप भी न्यारे बनो। सहज पुरूषार्थ है ना। न्यारे नहीं बन पाते हैं, इसका कारण क्या है? आजकल का लगाव सारी दुनिया में किस कारण से होता है? (अट्रेक्शन पर) अट्रेक्शन भी स्वार्थ से है। इस समय का लगाव स्नेह से नहीं लेकिन स्वार्थ से है। तो स्वार्थ के कारण लगाव और लगाव के कारण न्यारे नहीं बन सकते। तो उसके लिये क्या करना पड़े? स्वार्थ का अर्थ क्या है? स्वार्थ अर्थात् स्व के रथ को स्वाहा करो। यह जो रथ अर्थात् देह-अभिमान, देह की स्मृति, देह का लगाव लगा हुआ है। इस स्वार्थ को कैसे खत्म करेंगे? उसका सहज पुरूषार्थ, ‘स्वार्थ’ शब्द के अर्थ को समझो। स्वार्थ गया तो न्यारे बन ही जायेंगे। सिर्फ एक अर्थ को जानना है, जानकर अर्थ-स्वरूप बनना है। तो एक ही शब्द का अर्थ जानने से सदा एक के और एकरस बन जायेंगे। अगर संकल्प, वाचा, कर्मणा - तीनों अलौकिक होंगे तो फिर अपने को इस लोक के निवासी नहीं समझेंगे। समझेंगे कि इस पृथ्वी पर पांव नहीं हैं अर्थात् बुद्धि का लगाव इस दुनिया में नहीं है। बुद्धि रूपी पांव देह रूपी धरती से ऊंचा है। यह खुशी की निशानी है। जितना-जितना देह के भान की तरफ से बुद्धि ऊपर होगी उतना वह अपने को फरिश्ता महसूस करेगा। हर कर्त्तव्य करते बाप की याद में उड़ते रहेंगे तो उस अभ्यास का अनुभव होगा। स्थिति ऐसी हो जैसे कि उड़ रहे हैं। कलियुगी स्थूल वस्तुओं की रसना वा मन का लगाव मिट भी गया है, लेकिन इसके बाद फिर कौनसी स्टेज से पार होना है, वह जानती हो? लोहे की जंजीरें, मोटी-मोटी जंजीरें तो तोड़ चुकी हो, लेकिन बहुत महीन धागे कहां-कहां बन्धनमुक्त नहीं बना सकते। वह महीन धागे कौनसे हैं? यह परखना भी बड़ी बात नहीं इस ग्रुप के लिए। जानती भी हो,चाहती भी हो फिर बाकी क्या रह जाता है? सभी में महीन से महीन धागा कौनसा है, जो ज्ञानी बनने के बाद नया बन्धन शुरू होता है? (हरेक ने सुनाया) यह सभी नोट करना, यह नोट काम में आयेंगे। और भी कुछ है? इस ग्रुप में गंगा-यमुना इकट्ठी हो गई हैं। यह विशेषता है ना। सरस्वती तो गुप्त होती है। इसका भी बड़ा गुह्य रहस्य है कि गंगा कौन और यमुना कौन है! पहले यह तो बताओ कि सभी से महीन धागा कौनसा है? फिर इससे आपेही समझ जायेंगे गंगा कौन, यमुना कौन? सभी से महीन और बड़ा सुन्दरता का धागा एक शब्द में कहेंगे तो ‘मैं’ शब्द ही है। ‘मैं’ शब्द देह-अभिमान से पार ले जाने वाला है। और ‘मैं’ शब्द ही देही-अभिमानी से देह-अभिमान में ले आने वाला भी है। मैं शरीर नहीं हूँ, इससे पार जाने का अभ्यास तो करते रहते हो। लेकिन यही मैं शब्द कि - ‘‘मैं फलानी हूँ, मैं सभी कुछ जानती हूँ, मैं किस बात में कम हूँ, मैं सब कुछ कर सकती हूँ, मैं यह-यह करती हूँ और कर सकती हूँ, मैं जो हूँ जैसी हूँ वह मैं जानती हूँ, मैं कैसे सहन करती हूँ, कैसे समस्याओं का सामना करती हूँ, कैसे मर कर मैं चलती हूँ, कैसे त्याग कर चल रही हूँ, मैं यह जानती हूँ’’ - ऐसे मैं की लिस्ट सुल्टे के बजाय उलटे रूप में महीन, सुन्दरता का धागा बन जाता है। यह सभी से बड़ा महीन धागा है। न्यारा बनने के बजाय, बाप का प्यारा बनाने के बजाय कोई-न-कोई आत्मा का वा कोई वस्तु का प्यारा बना देता है। चाहे मान का प्यारा, चाहे नाम का प्यारा, चाहे शान का प्यारा, चाहे कोई विशेष आत्माओं का प्यारा बना लेता है। तो इस धागे को तोड़ने के लिये वा इस धागे से बन्धनमुक्त बनने के लिए क्या करना पड़े? ट्रॉन्सफर कैसे हो? जैसे लौकिक रीति से भी अगर कोई आत्मा किस आत्मा के स्नेह में रहती है तो फौरन ही देखने वाले अनुभव करते हैं कि यह आत्मा किसके स्नेह में खोई हुई है। तो क्या रूहानी स्नेह में खोई हुई आत्माओं की सूरत स्नेही मूर्त्त को प्रत्यक्ष नहीं करेगी? उनके दिल का लगाव सदैव उस स्नेही से लगा हुआ रहता है। तो एक ही तरफ लगाव होने से अनेक तरफ का लगाव सहज ही समाप्त हो जाता है। और तो क्या लेकिन अपने आप का लगाव अर्थात् देह-अभिमान, अपने आपकी स्मृति से भी सदैव स्नेही खोया हुआ होता है। तो सहज युक्ति वा विधि जब हो सकती है, तो क्यों नहीं सहज युक्ति, विधि से अपनी स्टेज की स्पीड में वृद्धि लाती हो!

 

1972

जो शरीर के साथ वा शरीर के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं, शरीर की दुनिया, सम्बन्ध वा अनेक जो भी वस्तुएं हैं उनसे बिल्कुल डिटैच होंगे,ज़रा भी लगाव नहीं होगा, तब न्यारा हो सकेंगे। अगर सूक्ष्म संकल्प में भी हल्कापन नहीं है, डिटैच नहीं हो सकते तो न्यारेपन का अनुभव नहीं कर सकेंगे। तो अब महारथियों को यह प्रैक्टिस करनी है। महान् और मेहमान - इन दोनों स्मृति में रहने से स्वत: और सहज ही जो भी कमजोरियां वा लगाव के कारण उपराम स्थिति न रह आकर्षण में आ जाते हैं वह आकर्षण समाप्त हो उपराम हो जायेंगे। महान् समझने से जो साधारण कर्म वा साधारण संकल्प वा संस्कारों के वश चलते हैं वह सभी अपने को महान् आत्मा समझने से परिवर्तित हो जाते हैं। स्मृति महान् की होने कारण संस्कार वा संकल्प वा बोल वा कर्म सभी चेन्ज हो जाते हैं। इसलिए सदैव महान् और मेहमान समझकर चलने से वर्तमान में और भविष्य में और फिर भक्ति-मार्ग में भी महिमा योग्य बन जायेंगे। किसी भी वस्तु से वा किसी भी व्यक्ति से कोई भी व्यक्त भाव से लगाव क्यों होता है? क्या जो भी वस्तु देखते हो, उन वस्तुओं की तुलना में जो अलौकिक जन्म की प्राप्ति है वह और यह वस्तुएं - उन्हों में रात-दिन का अन्तर नहीं अनुभव हुआ है क्या? क्या व्यक्त भाव से प्राप्त हुआ दु:ख-अशान्ति का अनुभव अब तक पूरा नहीं किया है क्या? जो भी व्यक्तियाँ देखते हो उन सर्व व्यक्तियों से पुरानी दुनिया के नातों को वा सम्बन्ध को इस अलौकिक जन्म के साथ समाप्त नहीं किया है? जब जन्म नया हो गया तो पुराने जन्म के व्यक्तियों के साथ पुराने सम्बन्ध समाप्त नहीं हो गये क्या? नये जन्म में पुराने सम्बन्ध का लगाव रहता है क्या। तो व्यक्तियों से भी लगाव रख ही कैसे सकते हो? जबकि वह जन्म ही बदल गया तो जन्म के साथ सम्बन्ध और कर्म नहीं बदला? वा तो यह कहो कि अब तक अलौकिक जन्म नहीं हुआ है। साधारण रीति से जहाँ जन्म होता है, जन्म के प्रमाण ही कर्म होता है, सम्बन्ध सम्पर्क होता है। तो यहाँ फिर जन्म अलौकिक और सम्बन्ध लौकिक से क्यों वा कर्म फिर लौकिक क्यों? तो अब बताओ, नष्टोमोहा होना सहज है वा मुश्किल है? मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि जिस समय मोह उत्पन्न होता है उस समय अपनी शक्ल नहीं देखती हो? आईना तो मिला हुआ है ना। आईना साथ में नहीं रहता है क्या? अगर सिकल को देखेंगे तो मोह खत्म हो जावेगा। अगर यह देखने का अभ्यास पड़ जाये तो अभ्यास के बाद न चाहते भी बार-बार स्वत: ही आईने के तरफ खि्ांच जावेंगी।

 

1973

सम्पूर्ण स्वतन्त्र अर्थात् जब चाहो इस देह का आधार लो, जब चाहो इस देह के भान से ऐसे न्यारे हो जाओ जो जरा भी यह देह अपनी तरफ खींच न सके। ऐसे अपनी देह के भान अर्थात् देह के लगाव से स्वतन्त्र, अपने कोई भी पुराने स्वभाव से भी स्वतन्त्र, स्वभाव से भी बन्धायमान न हो। अपने संस्कारों से भी स्वतन्त्र। अपने सर्व लौकिक सम्पर्क वा अलौकिक परिवार के सम्पर्क के बन्धनों से भी स्वतन्त्र। ऐसे स्वतन्त्र बने हो? ऐसे को कहा जाता है-’सम्पूर्ण स्वतन्त्र’। ऐसी स्टेज पर पहुंचे हो वा अभी तक एक छोटी-सी कर्मेन्द्रिय भी अपने बंधन में बाँध लेती है? कमजोरी लाने के दो शब्द हैं -- एक लगाव, दूसरा पुराना स्वभाव। किसी को अपना पुराना स्वभाव कमज़ोर करता है और कोई को किसी प्रकार का भी लगाव कमज़ोर करता है। यह दो मुख्य कमजोरियाँ हैं। इसका विस्तार बहुत है। हरेक का कोई- ना कोई लगाव है और हरेक में नम्बरवार परसेन्टेज में अभी तक पुराना स्वभाव है। यदि यह स्वभाव और लगाव बदल जाय तो विश्व भी बदल जाय। क्योंकि जब विश्व के परिवर्तक स्वयं ही नहीं बदले हैं तो वे विश्व को कैसे बदल सकते हैं? अपने में चेक करो कि क्या किसी भी प्रकार का लगाव है? चाहे वह संकल्प के रूप में लगाव हो, चाहे सम्बन्ध के रूप में, चाहे सम्पर्क के रूप में और चाहे अपनी कोई विशेषता की ही तरफ हो। अगर अपनी कोई भी विशेषता में भी लगाव है तो वह भी लगाव बन्धन-युक्त कर देगा और वह बन्धन-मुक्त नहीं करेगा क्योंकि लगाव अशरीरी बनने नहीं देगा और वह विश्वकल्याणकारी भी बन नहीं सकेगा। जो अपने ही लगाव में फँसा हुआ है वह विश्व को मुक्ति व जीवनमुक्ति का वर्सा दिला ही कैसे सकता है? लगाव वाला कभी सर्व-शक्ति सम्पन्न हो नहीं सकता, लगाव वाला धर्मराज की सजाओं से सम्पूर्ण मुक्त सलाम देने वाला नहीं बन सकता। लगाव वाले को सलाम भरना ही पड़ेगा और लगाव वाले सम्पूर्ण फर्स्ट जन्म का राज्य भाग्य पा न सके। इसी प्रकार पुराने स्वभाव वाले नये जीवन, नये युग का सम्पूर्ण और सदा अनुभव नहीं कर पाते। हर आत्मा में भाई-भाई का भाव न रखने से स्वभाव एक विघ्न बन जाता है। विस्तार को तो स्वयं भी जानते हो। लेकिन अभी क्या करना है? विस्तार को जीवन में समा कर बाप-समान बन जाना है। न कोई पुराना स्वभाव हो और न कोई लगाव हो। जबकि तन, मन और धन सभी बाप को समर्पण कर दिया, तो देने के बाद फिर मेरा विचार, मेरी समझ और मेरा स्वभाव यह शब्द ही कहाँ से आया? क्या मेरा अभी तक है या मेरा सो तेरा हो गया? जब कहा-’मेरा सो तेरा’ -तो मेरा मन समाप्त हो गया ना? मन और तन बाप की अमानत है। आपकी तो नहीं है न? ‘मेरा मन चंचल है’-यह कहना कहाँ से आया? क्या अभी तक मेरा-पन नहीं छूटा? मेरा-पन किसमें होता है? बन्दर में, वह खुद मर जायेगा लेकिन उसका मेरा-पन नहीं मरेगा। इसलिये चित्रकारों ने महावीर को भी पूँछ की निशानी दे दी है। हैं महावीर लेकिन पूँछ ज़रूर है। तो यह पूँछ कौन-सी है? लगाव और स्वभाव की। जब तक इस पूँछ को आग नहीं लगाई है, तब तक लंका को आग नहीं लग सकती। तो विनाश की वार्निंग की सहज निशानी कौन-सी हुई? इसी पूँछ की आग लगानी है। जब सभी महावीरों की लगन की आग लग जायेगी तो क्या यह पुराना विश्व रहेगा? इसलिये अब सभी प्रकार के लगाव और स्वभाव को समाप्त करो।