05-02-2023 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 09.12.93 "बापदादा" मधुबन

एकाग्रता की शक्ति से दृढ़ता द्वारा सहज सफलता की प्राप्ति

  • आज ब्राह्मण संसार के रचता अपने चारों ओर के ब्राह्मण परिवार को देख हर्षित हो रहे हैं।
  • ये छोटा-सा न्यारा और अति प्यारा अलौकिक ब्राह्मण संसार है।
  • सारे ड्रामा में अति श्रेष्ठ संसार है क्योंकि ब्राह्मण संसार की हर गति-विधि न्यारी और विशेष है।
  • इस ब्राह्मण संसार में ब्राह्मण आत्मायें भी विश्व में से विशेष आत्मायें हैं इसलिये ही ये विशेष आत्माओं का संसार है।
  • हर ब्राह्मण आत्मा की श्रेष्ठ वृत्ति, श्रेष्ठ दृष्टि और श्रेष्ठ कृति विश्व की सर्व आत्माओं के लिये श्रेष्ठ बनाने के निमित्त है।
  • हर आत्मा के ऊपर ये विशेष जिम्मेवारी है तो हर एक अपने इस ज़िम्मेवारी को अनुभव करते हो?
  • कितनी बड़ी जिम्मेवारी है!
  • सारे विश्व का परिवर्तन!
  • न स़िर्फ आत्माओं का परिवर्तन करते हो लेकिन प्रकृति का भी परिवर्तन करते हो।
  • ये स्मृति सदा रहे इसमें नम्बरवार हैं।
  • सभी ब्राह्मण आत्माओं के अन्दर संकल्प सदा रहता है कि हम विशेष आत्मा नम्बरवन बनें लेकिन संकल्प और कर्म में अन्तर पड़ जाता है।
  • इसका कारण?
  • कर्म के समय सदा अपनी स्मृति को अनुभवी स्थिति में नहीं लाते।
  • सुनना, जानना, ये दोनों याद रहता है लेकिन स्वयं को उस स्थिति में मानकर चलना, इसमें मैजारिटी कभी अनुभवी और कभी स़िर्फ मानने और जानने वाले बन जाते हैं।
  • इस अनुभव को बढ़ाने के लिये दो बातों के विशेष महत्व को जानो।
  • एक स्वयं के महत्व को, दूसरा समय के महत्व को।
  • स्वयं के प्रति बहुत जानते हो।
  • अगर किसी से भी पूछेंगे कि आप कौन-सी आत्मा हो?
  • वा अपने से भी पूछेंगे कि मैं कौन?
  • तो कितनी बातें स्मृति में आयेंगी?
  • एक मिनट के अन्दर अपने कितने स्वमान याद आ जाते हैं?
  • एक मिनट में कितने याद आते हैं?
  • बहुत याद आते हैं ना।
  • कितनी लम्बी लिस्ट है स्वयं के महत्व की!
  • तो जानने में तो बहुत होशियार हो।
  • सभी होशियार हो ना?
  • फिर अनुभव करने में अन्तर क्यों पड़ जाता है?
  • क्योंकि समय पर उस स्थिति के सीट पर सेट नहीं होते हो।
  • अगर सीट पर सेट है तो कोई भी, चाहे कमजोर संस्कार, चाहे कोई आत्मायें, चाहे प्रकृति, चाहे किसी भी प्रकार की रॉयल माया अपसेट नहीं कर सकती।
  • जैसे शरीर के रूप में भी बहुत आत्माओं को एक सीट पर वा स्थान पर एकाग्र होकर बैठने का अभ्यास नहीं होता तो वह क्या करेगा?
  • हिलता रहेगा ना।
  • ऐसे मन और बुद्धि को किसी भी अनुभव के सीट पर सेट होना नहीं आता तो अभी-अभी सेट होगा, अभी-अभी अपसेट।
  • शरीर को बिठाने के लिये स्थूल स्थान होता है और मन-बुद्धि को बिठाने के लिये श्रेष्ठ स्थितियों का स्थान है।
  • तो बापदादा बच्चों का यह खेल देखते रहते हैं अभी-अभी अच्छी स्थिति के अनुभव में स्थित होते हैं और अभी-अभी अपने स्थिति से हलचल में आ जाते हैं।
  • जैसे छोटे बच्चे चंचल होते हैं तो एक स्थान पर ज्यादा समय टिक नहीं सकते।
  • तो कई बच्चे यह बचपन के खेल बहुत करते हैं।
  • अभी-अभी देखेंगे बहुत एकाग्र और अभी-अभी एकाग्रता के बजाय भिन्न-भिन्न स्थितियों में भटकते रहेंगे।
  • तो इस समय विशेष अटेन्शन चाहिये मन और बुद्धि सदा एकाग्र रहे।
  • एकाग्रता की शक्ति सहज निर्विघ्न बना देती है।
  • मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं है।
  • एकाग्रता की शक्ति स्वत: ‘एक बाप दूसरा न कोई' ये अनुभूति सदा कराती है।
  • एकाग्रता की शक्ति सहज एकरस स्थिति बनाती है।
  • एकाग्रता की शक्ति सदा सर्व प्रति एक ही कल्याण की वृत्ति सहज बनाती है।
  • एकाग्रता की शक्ति सर्व प्रति भाई-भाई की दृष्टि स्वत: बना देती है।
  • एकाग्रता की शक्ति हर आत्मा के सम्बन्ध में स्नेह, सम्मान, स्वमान के कर्म सहज अनुभव कराती है।
  • तो अभी क्या करना है?
  • क्या अटेन्शन देना है? ‘एकाग्रता'।
  • स्थित होते हो, अनुभव भी करते हो लेकिन एकाग्र अनुभवी नहीं होते।
  • कभी श्रेष्ठ अनुभव में, कभी मध्यम, कभी साधारण, तीनों में चक्कर लगाते रहते हो।
  • इतना समर्थ बनो जो मन-बुद्धि सदा आपके ऑर्डर अनुसार चले।
  • स्वप्न में भी सेकेण्ड मात्र भी हलचल में नहीं आये।
  • मन, मालिक को परवश नहीं बनाये।
  • परवश आत्मा की निशानी है - उस आत्मा को उतना समय सुख, चैन, आनन्द की अनुभूति चाहते हुए भी नहीं होगी।
  • ब्राह्मण आत्मा कभी किसी के परवश नहीं हो सकती, अपने कमजोर स्वभाव और संस्कार के वश भी नहीं।
  • वास्तव में ‘स्वभाव' शब्द का अर्थ है ‘स्व का भाव'।
  • स्व का भाव तो अच्छा होता है, खराब नहीं होता।
  • ‘स्व' कहने से क्या याद आता है?
  • आत्मिक स्वरूप याद आता है ना।
  • तो स्वभाव अर्थात् स्व प्रति व सर्व प्रति आत्मिक भाव हो।
  • जब भी कमजोरी वश सोचते हो कि मेरा स्वभाव वा मेरा संस्कार ही ऐसा है, क्या करुँ, है ही ऐसा... यह कौन-सी आत्मा बोलती है?
  • यह शब्द वा संकल्प परवश आत्मा के हैं।
  • तो जब भी यह संकल्प आये कि स्वभाव ऐसा है, तो श्रेष्ठ अर्थ में टिक जाओ।
  • संस्कार सामने आये कि मेरा संस्कार..., तो सोचो क्या मुझ विशेष आत्मा के यह संस्कार हैं, जिसको मेरा संस्कार कह रहे हो?
  • मेरा कहते हो तो कमजोर संस्कार भी मेरापन के कारण छोड़ते नहीं हैं क्योंकि यह नियम है जहाँ मेरापन होता है वहाँ अपनापन होता है और जहाँ अपनापन होता है वहाँ अधिकार होता है।
  • तो कमजोर संस्कार को मेरा बना लिया तो वो अपना अधिकार छोड़ते नहीं हैं इसलिये परवश होकर बाप के आगे अर्जी डालते रहते हो कि छुड़ाओ-छुड़ाओ।
  • ‘संस्कार' शब्द कहते याद करो कि अनादि संस्कार, आदि संस्कार ही मेरा संस्कार है।
  • ये माया के संस्कार हैं, मेरे नहीं।
  • तो एकाग्रता की शक्ति से परवश स्थिति को परिवर्तन कर मालिकपन की स्थिति की सीट पर सेट हो जाओ।
  • योग में भी बैठते हैं, बैठते तो सभी रुचि से हैं लेकिन जितना समय, जिस स्थिति में स्थित होना चाहते हैं, उतना समय एकाग्र स्थिति रहे, उसकी आवश्यकता है।
  • तो क्या करना है? किस बात को अण्डरलाइन करेंगे?
  • (एकाग्रता) एकाग्रता में ही दृढ़ता होती है और जहाँ दृढ़ता है वहाँ सफलता गले का हार है।
  • अच्छा! चारों ओर के अलौकिक ब्राह्मण संसार की विशेष आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ स्थिति के अनुभव की सीट पर सेट रहने वाली आत्माओं को, सदा स्वयं के महत्व को अनुभव करने वाले, सदा एकाग्रता की शक्ति से मन-बुद्धि को एकाग्र करने वाले, सदा एकाग्रता के शक्ति से ही दृढ़ता द्वारा सहज सफलता प्राप्त करने वाले सर्वश्रेष्ठ, सर्व विशेष, सर्व स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
  • अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात -
  • उड़ती कला में जाने के लिए डबल लाइट बनो, कोई भी आकर्षण आकर्षित न करे सभी अपने को वर्तमान समय के प्रमाण तीव्र गति से उड़ने वाले अनुभव करते हो?
  • समय की गति तीव्र है वा आत्माओं के पुरुषार्थ की गति तीव्र है?
  • समय आपके पीछे-पीछे है या आप समय के प्रमाण चल रहे हो?
  • समय के इन्तज़ार में तो नहीं हो ना कि अन्त में सब ठीक हो जायेगा।
  • सम्पूर्ण हो जायेंगे, बाप समान हो जायेंगे?
  • ऐसे तो नहीं है ना!
  • क्योंकि ड्रामा के हिसाब से वर्तमान समय बहुत तीव्र गति से जा रहा है, अति में जा रहा है।
  • जो कल था उससे आज और अति में जा रहा है।
  • यह तो जानते हो ना?
  • जैसे समय अति में जा रहा है, ऐसे आप श्रेष्ठ आत्मायें भी पुरुषार्थ में अति तीव्र अर्थात् फ़ास्ट गति से जा रहे हो?
  • कि कभी ढीले, कभी तेज़?
  • ऐसे नहीं कि नीचे आकर फिर ऊपर जाओ।
  • नीचे-ऊपर होने वाले की गति कभी एकरस फ़ास्ट नहीं हो सकती।
  • तो सदा सर्व बातों में श्रेष्ठ वा तीव्र गति से उड़ने वाले हो।
  • वैसे गायन है ‘चढ़ती कला सर्व का भला' लेकिन अभी क्या कहेंगे?
  • ‘उड़ती कला, सर्व का भला'।
  • अभी चढ़ती कला का समय भी समाप्त हुआ, अभी उड़ती कला का समय है।
  • तो उड़ती कला के समय कोई चढ़ती कला से पहुँचना चाहे तो पहुँच सकेगा? नहीं।
  • तो सदा उड़ती कला हो।
  • उड़ती कला की निशानी है सदा डबल लाइट।
  • डबल लाइट नहीं तो उड़ती कला हो नहीं सकती।
  • थोड़ा भी बोझ नीचे ले आता है।
  • जैसे प्लेन में जाते हैं, उड़ते हैं तो अगर मशीनरी में या पेट्रोल में ज़रा भी कचरा आ गया तो क्या हालत होती है?
  • उड़ती कला से गिरती कला में आ जाता है।
  • तो यहाँ भी अगर किसी भी प्रकार का बोझ है, चाहे अपने संस्कारों का, चाहे वायुमण्डल का, चाहे किसी आत्मा के सम्बन्ध-सम्पर्क का, कोई भी बोझ है तो उड़ती कला से हलचल में आ जाता है।
  • कहेंगे वैसे तो मैं ठीक हूँ लेकिन ये कारण है ना इसीलिये ये संस्कार का, व्यक्ति का, वायुमण्डल का बन्धन है।
  • लेकिन कारण कैसा भी हो, क्या भी हो, तीव्र पुरुषार्थी सभी बातों को ऐसे क्रॉस करते हैं जैसे कुछ है ही नहीं।
  • मेहनत नहीं, मनोरंजन अनुभव करेंगे।
  • तो ऐसी स्थिति को कहा जाता है उड़ती कला।
  • तो उड़ती कला है या कभी-कभी नीचे आने का, चक्कर लगाने का दिल हो जाता है।
  • कहीं भी लगाव नहीं हो।
  • ज़रा भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे।
  • रॉकेट भी तब उड़ सकता है, जब धरती की आकर्षण से परे हो जाये।
  • नहीं तो ऊपर उड़ नहीं सकता।
  • न चाहते भी नीचे आ जायेगा।
  • तो कोई भी आकर्षण ऊपर नहीं ले जा सकती।
  • सम्पूर्ण बनने नहीं देगी।
  • तो चेक करो संकल्प में भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे।
  • सिवाए बाप के और कोई आकर्षण नहीं हो।
  • पाण्डव क्या समझते हैं?
  • ऐसे तीव्र पुरुषार्थी बनो।
  • बनना तो है ही ना। कितने बार ऐसे बने हो?
  • अनेक बार बने हो।
  • आप ही बने हो या दूसरे बने हैं?
  • आप ही बने हो।
  • तो नम्बरवार में तो नहीं आना है ना, नम्बरवन में आना है।
  • मातायें क्या करेंगी?
  • नम्बरवन या नम्बरवार भी चलेगा?
  • 108 नम्बर भी चलेगा?
  • 108 नम्बर बनेंगे कि पहला नम्बर बनेंगे?
  • अगर बाप के बने हैं, अधिकारी बने हैं तो पूरा वर्सा लेना है या थोड़ा कम?
  • फिर तो नम्बरवन बनेंगे ना।
  • दाता फुल दे रहा है और लेने वाला कम ले तो क्या कहेंगे?
  • इसलिये नम्बरवन बनना है।
  • नम्बरवन चाहे एक ही हो लेकिन नम्बरवन डिविज़न तो बहुत हैं ना।
  • तो सेकेण्ड में नहीं आना है।
  • लेना है तो पूरा लेना है।
  • अधूरा लेने वाले तो पीछे-पीछे बहुत आयेंगे।
  • लेकिन आपको पूरा लेना है।
  • सभी पूरा लेने वाले हो या थोड़े में राज़ी होने वाले हो?
  • जब खुला भण्डार है और अखुट है तो कम क्यों लें?
  • बेहद है ना, हद हो कि 8 हजार इसको मिलना है, 10 हजार इसको मिलना है तो कहेंगे भाग्य में इतना ही है, लेकिन बाप का खुला भण्डार है, अखुट है, जितना लेना चाहे ले सकते हैं फिर भी अखुट है।
  • अखुट ख़ज़ाने के मालिक हो।
  • बालक सो मालिक हो।
  • तो सभी सदा खुश रहने वाले हो ना कि थोड़ा-थोड़ा कभी दु:ख की लहर आती है?
  • दु:ख की लहर स्वप्न में भी नहीं आ सकती।
  • संकल्प तो छोड़ो लेकिन स्वप्न में भी नहीं आ सकती।
  • इसको कहा जाता है नम्बरवन।
  • तो क्या कमाल करके दिखायेंगे?
  • सभी नम्बरवन आकर दिखायेंगे ना?
  • वैसे भी दिल्ली को दिल कहते हैं।
  • तो जैसा दिल होगा वैसा शरीर चलेगा।
  • आधार तो दिल होता है ना।
  • दिल है दिलाराम की दिल।
  • तो दिल की गद्दी यथार्थ चाहिये ना, नीचे-ऊपर नहीं चाहिये।
  • तो नशा है ना कि हम दिलाराम का दिल हैं।
  • तो अभी अपने श्रेष्ठ संकल्पों से स्वयं को और विश्व को परिवर्तन करो।
  • संकल्प किया और कर्म हुआ।
  • ऐसे नहीं, सोचा तो बहुत था, सोचते तो बहुत हैं, लेकिन होता बहुत कम है, वे तीव्र पुरुषार्थी नहीं हैं।
  • तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् संकल्प और कर्म समान हो तब ही बाप समान कहेंगे।
  • खुश हैं और सदा खुश रहेंगे।
  • यह पक्का निश्चय है ना।
  • खुश रहने वाले ही खुशनसीब हैं।
  • यह पक्का है या थोड़ा-थोड़ा कच्चा हो जाता है?
  • कच्ची चीज़ अच्छी लगती है?
  • पक्के को पसन्द किया जाता है।
  • तो पूरा ही पक्का रहना है।
  • रोज़ अमृतवेले यह पाठ पक्का करो कि कुछ भी हो जाये खुश रहना है, खुश करना है।
  • अच्छा और कोई खेल नहीं दिखाना।
  • यही खेल दिखाना, और-और खेल नहीं करना। अच्छा!



  • ( All Blessings of 2021-22)
  • भाग्य और भाग्य विधाता बाप की स्मृति में रह भाग्य बांटने वाले फ्राकदिल महादानी भव

    भाग्य विधाता बाप और भाग्य दोनों ही याद रहें तब औरों को भी भाग्यवान बनाने का उमंग-उत्साह रहेगा।

    जैसे भाग्यविधाता बाप ब्रह्मा द्वारा भाग्य बांटते हैं ऐसे आप भी दाता के बच्चे हो, भाग्य बांटते चलो।

    वे लोग कपड़ा बांटेंगे, अनाज बांटेंगे, कोई गिफ्ट देंगे.. लेकिन उससे कोई तृप्त नहीं हो सकते।

    आप भाग्य बांटो तो जहाँ भाग्य है वहाँ सब प्राप्तियां हैं।

    ऐसे भाग्य बांटने में फ्राकदिल, श्रेष्ठ महादानी बनो।

    सदा देते रहो।



  • (All Slogans of 2021-22)
    • जो एकनामी रहते और एकानामी से चलते हैं वही प्रभू प्रिय हैं।

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