आज अव्यक्त बापदादा अपने ‘अव्यक्त स्थिति भव' के वरदानी बच्चों वा अव्यक्ति फरिश्तों से मिलने आये हैं।
यह अव्यक्त मिलन इस सारे कल्प में अब एक ही बार संगम पर होता है।
सतयुग में भी देव मिलन होगा लेकिन फरिश्तों का मिलन, अव्यक्त मिलन इस समय ही होता है।
निराकार बाप भी अव्यक्त ब्रह्मा बाप के द्वारा मिलन मनाते हैं।
निराकार को भी यह फरिश्तों की महफिल अति प्रिय लगती है, इसलिए अपना धाम छोड़ आकारी वा साकारी दुनिया में मिलन मनाने आये हैं।
फरिश्ते बच्चों के स्नेह की आकर्षण से बाप को भी रूप बदल, वेष बदल बच्चों के संसार में आना ही पड़ता है।
यह संगमयुग बाप और बच्चों का अति प्यारा और न्यारा संसार है।
स्नेह सबसे बड़ी आकर्षित करने की शक्ति है जो परम-आत्मा, बन्धनमुक्त को भी, शरीर से मुक्त को भी स्नेह के बन्धन में बांध लेती है, अशरीरी को भी लोन के शरीरधारी बना देती है।
यही है बच्चों के स्नेह का प्रत्यक्ष प्रमाण।
आज का दिन अनेक चारों ओर के बच्चों के स्नेह की धारायें, स्नेह के सागर में समाने का दिन है।
बच्चे कहते हैं - "हम बापदादा से मिलने आये हैं"।
बच्चे मिलने आये हैं?
वा बच्चों से बाप मिलने आये हैं?
या दोनों ही मधुबन में मिलने आये हैं?
बच्चे स्नेह के सागर में नहाने आये हैं लेकिन बाप हजारों गंगाओं में नहाने आते हैं इसलिए गंगा-सागर का मेला विचित्र मेला है।
स्नेह के सागर में समाए सागर समान बन जाते हैं।
आज के दिन को बाप समान बनने का स्मृति अर्थात् समर्थी-दिवस कहते हैं।
क्यों?
आज का दिन ब्रह्मा बाप के सम्पन्न और सम्पूर्ण बाप समान बनने का यादगार दिवस है।
ब्रह्मा बच्चा सो बाप, क्योंकि ब्रह्मा बच्चा भी है, बाप भी है।
आज के दिन ब्रह्मा ने बच्चे के रूप में सपूत बच्चा बनने का सबूत दिया स्नेह के स्वरूप का, समान बनने का सबूत दिया; अति प्यारे और अति न्यारेपन का सबूत दिया; बाप समान कर्मातीत अर्थात् कर्म के बन्धन से मुक्त, न्यारा बनने का सबूत दिया; सारे कल्प के कर्मों के हिसाब-किताब से मुक्त होने का सबूत दिया।
सिवाए सेवा के स्नेह के और कोई बन्धन नहीं।
सेवा में भी सेवा के बन्धन में बंधने वाले सेवाधारी नहीं क्योंकि सेवा में कोई बन्धनमुक्त बन सेवा करते और कोई बन्धनयुक्त बन सेवा करते।
सेवाधारी ब्रह्मा बाप भी है।
लेकिन सेवा द्वारा हद की रॉयल इच्छायें सेवा में भी हिसाब-किताब के बन्धन में बांधती है।
लेकिन सच्चे सेवाधारी इस हिसाब-किताब से भी मुक्त हैं।
इसी को ही कर्मातीत स्थिति कहा जाता है।
जैसे देह का बन्धन, देह के सम्बन्ध का बन्धन, ऐसे सेवा में स्वार्थ - यह भी बन्धन कर्मातीत बनने में विघ्न डालता है।
कर्मातीत बनना अर्थात् इस रॉयल हिसाब-किताब से भी मुक्त।
मैजारिटी निमित्त गीता-पाठशालाओं के सेवाधारी आये हैं ना।
तो सेवा अर्थात् औरों को भी मुक्त बनाना।
औरों को मुक्त बनाते स्वयं को बन्धन में बांध तो नहीं देते?
नष्टोमोहा बनने के बजाए, लौकिक बच्चों आदि सबसे मोह त्याग कर स्टूडेन्ट से मोह तो नहीं करते?
यह बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है, अच्छा-अच्छा समझते मेरेपन की इच्छा के बन्धन में तो नहीं बंध जाते?
सोने की जंजीरें तो अच्छी नहीं लगती हैं ना?
तो आज का दिन हद के मेरे-मेरे से मुक्त होने का अर्थात् कर्मातीत होने का अव्यक्ति दिवस मनाओ।
इसी को ही स्नेह का सबूत कहा जाता है।
कर्मातीत बनना - यह लक्ष्य तो सबका अच्छा है।
अब चेक करो - कहाँ तक कर्मों के बन्धन से न्यारे बने हो?
पहली बात - लौकिक और अलौकिक, कर्म और सम्बन्ध दोनों में स्वार्थ भाव से मुक्त।
दूसरी बात - पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब वा वर्तमान पुरूषार्थ के कमजोरी के कारण किसी भी व्यर्थ स्वभाव-संस्कार के वश होने से मुक्त बने हैं?
कभी भी कोई कमजोर स्वभाव-संस्कार वा पिछला संस्कार-स्वभाव वशीभूत बनाता है तो बन्धन-युक्त हैं, बन्धनमुक्त नहीं।
ऐसे नहीं सोचना कि चाहते नहीं हैं लेकिन स्वभाव या संस्कार करा देते हैं।
यह भी निशानी बन्धनमुक्त की नहीं लेकिन बन्धनयुक्त की है।
और बात - कोई भी सेवा की, संगठन की, प्रकृति की परिस्थिति स्वस्थिति को वा श्रेष्ठ स्थिति को डगमग करती है - यह भी बन्धनमुक्त स्थिति नहीं है।
इस बन्धन से भी मुक्त।
और तीसरी बात - पुरानी दुनिया में पुराने अन्तिम शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि अपनी श्रेष्ठ स्थिति को हलचल में लाये - इससे भी मुक्त।
एक है व्याधि आना, एक है व्याधि हिलाना।
तो आना - यह भावी है लेकिन स्थिति हिल जाना - यह बन्धनयुक्त की निशानी है।
स्वचिन्तन, ज्ञान चिन्तन, शुभचिन्तक बनने का चिन्तन बदल शरीर की व्याधि का चिन्तन चलना - इससे मुक्त क्योंकि ज्यादा प्रकृति का चिंतन चिंता के रूप में बदल जाता है।
तो इससे मुक्त होना - इसी को ही कर्मातीत स्थिति कहा जाता है।
इन सभी बन्धनों को छोड़ना, यही कर्मातीत स्थिति की निशानी है।
ब्रह्मा बाप ने इन सभी बन्धनों से मुक्त हो कर्मातीत स्थिति को प्राप्त किया।
तो आज का दिवस ब्रह्मा बाप समान कर्मातीत बनने का दिवस है।
आज के दिवस का महत्व समझा?
अच्छा।
आज की सभा विशेष सेवाधारी अर्थात् पुण्य आत्मा बनने वालों की सभा है।
गीता पाठशाला खोलना अर्थात् पुण्य आत्मा बनना।
सबसे बड़े ते बड़ा पुण्य हर आत्मा को सदा के लिए अर्थात् अनेक जन्मों के लिए पापों से मुक्त करना - यही पुण्य है।
नाम बहुत अच्छा है - ‘गीता पाठशाला'।
तो गीता पाठशाला वाले अर्थात् सदा स्वयं गीता का पाठ पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले।
गीता-ज्ञान का पहला पाठ - अशरीरी आत्मा बनो और अन्तिम पाठ - नष्टो-मोहा, स्मृतिस्वरूप बनो।
तो पहला पाठ है विधि और अन्तिम पाठ है विधि से सिद्धि।
तो गीता-पाठशाला वाले हर समय यह पाठ पढ़ते हैं कि सिर्फ मुरली सुनाते हैं?
क्योंकि सच्ची गीता-पाठशाला की विधि यह है - पहले स्वयं पढ़ना अर्थात् बनना फिर औरों को निमित्त बन पढ़ाना।
तो सभी गीता-पाठशाला वाले इस विधि से सेवा करते हो?
क्योंकि आप सभी इस विश्व के आगे परमात्म-पढ़ाई का सैम्पल हो।
तो सैम्पल का महत्व होता है।
सैम्पल अनेक आत्माओं को ऐसा बनने की प्रेरणा देता है।
तो गीता-पाठशाला वालों के ऊपर बड़ी जिम्मेवारी है।
अगर जरा भी सैम्पल बनने में कमी दिखाई तो अनेक आत्माओं को भाग्य बनाने के बजाए, भाग्य बनाने से वंचित करने के निमित्त भी बन जायेंगे क्योंकि देखने वाले, सुनने वाले साकार रूप में आप निमित्त आत्माओं को देखते हैं।
बाप तो गुप्त हैं ना इसलिए ऐसा श्रेष्ठ कर्म करके दिखाओ जो आपके श्रेष्ठ कर्मों को देख, अनेक आत्मायें श्रेष्ठ कर्म करके अपने भाग्य की रेखा श्रेष्ठ बना सकें।
तो एक तो अपने को सदा सैम्पल समझना और दूसरा, सदा अपना सिम्बल याद रखना।
गीता-पाठशाला वालों का सिम्बल कौनसा है, जानते हो?
कमल पुष्प।
बापदादा ने सुनाया है कि कमल बनो और अमल करो।
कमल बनने का साधन ही है अमल करना।
अगर अमल नहीं करते तो कमल नहीं बन सकते इसलिए ‘सैम्पल हैं' और ‘कमलपुष्प' का सिम्बल सदा बुद्धि में रखो।
सेवा कितनी भी वृद्धि को प्राप्त हो लेकिन सेवा करते न्यारे बन प्यारे बनना।
सिर्फ प्यारे नहीं बनना, न्यारे बन प्यारे बनना क्योंकि सेवा से प्यार अच्छी बात है लेकिन प्यार लगाव के रूप में बदल नहीं जाये।
इसको कहते हैं न्यारे बन प्यारा बनना।
सेवा के निमित्त बने, यह तो बहुत अच्छा किया।
पुण्य आत्मा का टाईटल तो मिल ही गया इसलिए देखो, खास निमंत्रण दिया है, क्योंकि पुण्य का काम किया है।
अब आगे जो सिद्धि का पाठ पढ़ाया, तो सिद्धि की स्थिति से वृद्धि को प्राप्त करते रहना।
समझा, आगे क्या करना है? अच्छा।
सभी विशेष एक बात की इन्तजार में हैं, वह कौनसी? (रिजल्ट सुनायें) रिजल्ट आप सुनायेंगे या बाप सुनायेंगे?
बापदादा ने क्या कहा था - रिजल्ट लेंगे या देंगे?
ड्रामा प्लैन अनुसार जो चला, जैसे चला उसको अच्छा ही कहेंगे।
लक्ष्य सबने अच्छा रखा, लक्षण यथा शक्ति कर्म में दिखाया।
बहुतकाल का वरदान नम्बरवार धारण किया भी और अभी भी जो वरदान प्राप्त किया, वह वरदानीमूर्त बन बाप समान वरदानदाता बनते रहना।
अभी बापदादा क्या चाहते हैं?
वरदान तो मिला, अब इस वर्ष बहुतकाल बन्धन-मुक्त अर्थात् बाप समान कर्मातीत स्थिति का विशेष अभ्यास करते दुनिया को न्यारे और प्यारे-पन का अनुभव कराओ।
कभी-कभी अनुभव करना - अभी इस विधि को बदल बहुतकाल के अनुभूतियों का प्रत्यक्ष बहुतकाल अचल, अडोल, निर्विघ्न, निर्बन्धन, निर्विकल्प, निर्विकर्म अर्थात् निराकारी, निर्विकारी, निरंहकारी - इसी स्थिति को दुनिया के आगे प्रत्यक्ष रूप में लाओ।
इसको कहते हैं बाप समान बनना। समझा?
रिजल्ट में पहले स्वयं से स्वयं संतुष्ट, वह कितने रहे?
क्योंकि एक है स्वयं की सन्तुष्टता, दूसरी है ब्राह्मण परिवार की सन्तुष्टता, तीसरी है बाप की सन्तुष्टता।
तीनों की रिजल्ट में अभी और मार्क्स लेनी हैं।
तो सन्तुष्ट बनो, सन्तुष्ट करो।
बाप की सन्तुष्टमणि बन सदा चमकते रहो।
बापदादा बच्चों का रिगार्ड रखते हैं, इसलिए गुप्त रिकार्ड बताते हैं।
होवनहार हैं, इसीलिए बाप सदा सम्पन्नता की स्टेज देखते हैं।
अच्छा।
सभी सन्तुष्टमणियां हो ना?
वृद्धि को देख करके खुश रहो।
आप सब तो इन्तजार में हो कि आबू रोड तक क्यू लगे।
तो अभी तो सिर्फ हाल भरा है, फिर क्या करेंगे?
फिर सोयेंगे या अखण्ड योग करेंगे?
यह भी होना है इसलिए थोड़े में ही राज़ी रहो।
तीन पैर के बजाए एक पैर पृथ्वी भी मिले, तो भी राजी रहो।
पहले ऐसे होता था - यह नहीं सोचो।
परिवार के वृद्धि की खुशी मनाओ।
आकाश और पृथ्वी तो खुटने वाले नहीं हैं ना।
पहाड़ तो बहुत है।
यह भी होना चाहिए, यह भी मिलना चाहिए - यह बड़ी बात बना देते हो।
यह दादियां भी सोच में पड़ जाती हैं - क्या करें, कैसे करें?
ऐसे भी दिन आयेंगे जो दिन में धूप में सो जायेंगे, रात मे जागेंगे।
वो लोग आग जलाकर आसपास बैठ जाते हैं गर्म हो करके, आप योग की अग्नि जलाकर के बैठ जायेंगे।
पसन्द है ना या खटिया चाहिए?
बैठने के लिए कुर्सी चाहिए?
यह पहाड़ की पीठ कुर्सी बना देना।
जब तक साधन हैं तो सुख लो, नहीं हैं तो पहाड़ी को कुर्सी बनाना।
पीठ को आराम चाहिए ना, और तो कुछ नहीं।
पांच हजार आयेंगे तो कुर्सियां तो उठानी पड़ेगी ना।
और जब क्यू लगेगी तो खटिया भी छोड़नी पड़ेगी।
एवररेडी रहना।
अगर खटिया मिले तो भी ‘हाँ-जी', धरनी मिले तो भी ‘हाँ-जी'।
ऐसे शुरू में बहुत अभ्यास कराये हैं।
15-15 दिन तक दवाखाना बन्द रहता।
दमा के पेशेन्ट भी ढोढा (बाजरे की रोटी) और लस्सी पीते थे।
लेकिन बीमार नहीं हुए, सब तन्दरूस्त हो गये।
तो यह शुरू में अभ्यास करके दिखाया है, तो अन्त में भी होगा ना।
नहीं तो, सोचो, दमा का पेशेन्ट और उसको लस्सी दो तो पहले ही घबरा जायेगा।
लेकिन दुआ की दवा साथ में होती है, इसलिए मनोरंजन हो जाता है।
पेपर नहीं लगता है।
मुश्किल नहीं लगता।
त्याग नहीं, एक्सकर्शन हो जाती है।
तो सभी तैयार हो ना या प्रबन्ध करने वाले के पास टीचर्स लिस्ट ले जायेंगी?
इसीलिए नहीं बुलाते हैं ना।
समय आने पर यह सब साधन से भी परे साधना के सिद्धि रूप में अनुभव करेंगे।
रूहानी मिलेट्री (सेना) भी हो ना।
मिलेट्री का पार्ट भी तो बजाना है।
अभी तो स्नेही परिवार है, घर है - यह भी अनुभव कर रहे हो।
लेकिन समय पर रूहानी मिलेट्री बन जो समय आया उसको उसी स्नेह से पार करना - यह भी मिलेट्री की विशेषता है।
अच्छा।
गुजरात को यह विशेष वरदान है जो एवररेडी रहते हैं।
बहाना नहीं देते हैं - क्या करें, कैसे आयें, रिजर्वेशन नहीं मिलती - पहुँच जाते हैं। नजदीक का फायदा है।
गुजरात को आज्ञाकारी बनने का विशेष आशीर्वाद है क्योंकि सेवा में भी ‘हाँ-जी' करते हैं ना।
मेहनत की सेवा सदा गुजरात को देते हैं ना।
रोटी की सेवा कौन करता है?
स्थान देने की, भागदौड़ करने की सेवा गुजरात करता है।
बापदादा सब देखता है।
ऐसे नहीं बापदादा को पता नहीं पड़ता।
मेहनत करने वालों को विशेष महबूब की मुहब्बत प्राप्त होती है।
नजदीक का भाग्य है और भाग्य को आगे बढ़ाने का तरीका अच्छा रखते हैं। भाग्य को बढ़ाना सबको नहीं आता है।
कोई को भाग्य प्राप्त होता है लेकिन उतने तक ही रहता है, बढ़ाना नहीं आता।
लेकिन गुजरात को भाग्य है और बढ़ाना भी आता है इसलिए अपना भाग्य बढ़ा रहे हो - यह देख बापदादा भी खुश है।
तो बाप की विशेष आशीर्वाद - यह भी एक भाग्य की निशानी है।
समझा?
जो भी चारों ओर के स्नेही बच्चे पहुँचे हैं, बापदादा भी उन सभी देश, विदेश दोनों के स्नेही बच्चों को स्नेह का रिटर्न ‘सदा अविनाशी स्नेही भव' का वरदान दे रहे हैं।
स्नेह में जैसे दूर-दूर से दौड़कर पहुँचे हो, ऐसे ही जैसे स्थूल में दौड़ लगाई, समीप पहुँचे, सम्मुख पहुँचे, ऐसे पुरूषार्थ में भी विशेष उड़ती कला द्वारा बाप समान बनना अर्थात् सदा बाप के समीप रहना।
जैसे यहाँ सामने पहुँचे हो, वैसे सदा उड़ती कला द्वारा बाप के समीप ही रहना।
समझा, क्या करना है?
यह स्नेह, दिल का स्नेह दिलाराम बाप के पास आपके पहुँचने के पहले ही पहुँच जाता है।
चाहे सम्मुख हो, चाहे आज के दिन देश-विदेश में शरीर से दूर हैं लेकिन दूर होते हुए भी सभी बच्चे समीप से समीप दिलतख्तनशीन हैं।
तो सबसे समीप का स्थान है दिल।
तो विदेश वा देश में नहीं बैठे हैं लेकिन दिलतख्त पर बैठे हैं।
तो समीप हो गये ना।
सभी बच्चों की यादप्यार, उल्हनें, मीठी-मीठी रूहरिहानें, सौगातें - सब बाप के पास पहुँच गई।
बापदादा भी स्नेही बच्चों को ‘सदा मेहनत से मुक्त हो मुहब्बत में मग्न रहो' - यह वरदान दे रहे हैं।
तो सभी को रिटर्न मिल गया ना।
अच्छा।
सर्व स्नेही आत्माओं को, सदा समीप रहने वाली आत्माओं को, सदा बन्धनमुक्त, कर्मातीत स्थिति में बहुतकाल अनुभव करने वाली विशेष आत्माओं को, सर्व दिल-तख्तनशीन सन्तुष्टमणियों को बापदादा का ‘अव्यक्ति स्थिति भव' के वरदान साथ यादप्यार और गुडनाइट और गुडमार्निंग।
वरदान:-
पुराने खाते समाप्त कर, नये संस्कारों रूपी नये वस्त्र धारण करने वाले बाप समान सम्पन्न भव
जैसे दीपावली पर नये वस्त्र धारण करते हैं, ऐसे आप बच्चे इस मरजीवा नये जन्म में, नये संस्कार रूपी वस्त्र धारण कर नया वर्ष मनाओ।
अपनी कमजोरी, कमियां, निर्बलता, कोमलता आदि के जो भी पुराने खाते रहे हुए हैं, उन्हें समाप्त कर सच्ची दीपावली मनाओ।
इस नये जन्म में नये संस्कार धारण कर लो तो बाप समान सम्पन्न बन जायेंगे।
स्लोगन:-
शुद्ध संकल्प का खजाना जमा हो तो व्यर्थ संकल्पों में समय नहीं जायेगा।
सूचनाः- आज मास का तीसरा रविवार है, सभी राजयोगी तपस्वी भाई बहिनें सायं 6.30 से 7.30 बजे तक, विशेष योग अभ्यास के समय अपनी शुभ भावनाओं की श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा मन्सा महादानी बन सबको निर्भयता का वरदान देने की सेवा करें।